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जीवन की निन्दा करी होय तथा मला आचार देव जाकौं नहीं सहाया होय तथा प्रचार करने में प्रमादोरह्या होय तथा पर-भव में पराई जंठी खाय, सुख मान्या होय तथा आगे पर-भव, पशु पर्याय मैं श्वानादि की पर्याय में अशुभ भक्षण करे होय तथा सिंह की पर्याय में तथा और पशन को पर्याय में जहां खाद्य-अखाद्य का भेद नाहीं जान्या, तहां विचार रहित वरत्या होय तथा औरन को अभक्ष्य वस्तु खावते देख, जाप सुखी भया होय तथा अनाचारी जीवन में विशेष रखा होय तथा जनावारी जीवन की प्रशंसा करी होय तथा और का अनाचार देख, आपकौं अनाचार करने की अभिलाषा रही होय इत्यादिक पापन से पशु होय तो चान, वायस, गर्दभ आदि अशुभ भक्षक को पर्याय धरै तथा मनुष्य होय तो भीलादि नीच कुली होय। कदाचित् ऊँच कुली होय, तौ शूद्र समान अनाचारी होय । ४३ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव शुम लाचारी कौन पुण्य तें होय ? तब गुरु कही-जिन कूपर-भव में अनाचार-प्रक्रिया देख के ग्लानि उपजी होय तथा भला आचार सहित, दयामयी प्रवृत्ति देख, हर्ष मान्या होय तथा पर-भव में भले सुआचारी क्रियावन्त पुरुषन की संगति रही तथा भली लागो होय तथा अभक्ष्य भक्षण तें अरुचि भाव रहे होंय और जिनक कुशब्द भले नहीं लागे होय और सप्तव्यसनादि अनाचार देख, तिनकं कुफलदायक जानि, तजे होय और पराये दान, पूजा, शील, संयम, तप, व्रत, दयामयी आचार देख, तिनको अनुमोदना करी होय तथा पर-भव में आपकं शुभाचार भले लागे होय तथा मले आचार करने की आपकं इच्छा भई होय इत्यादिक शुभ परिणामन” शुभाचारी होय ।४४। बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो! संसार में भाई समान वल्लम नाहीं। सो ऐसे भाई-भाई में परस्पर द्वेष कौन पापते होय? तब गुरु कहीभो भव्य ! सुनि। जिनने पर-भव विर्षे एक माता के गर्भ में निकसे दोऊ भाईन का युगल तथा हस्ती, घोटक, भैंसा, श्वान, मोढ़े, तीसुरि, लाल, मुनयों, मुर्गा, मोर तथा मनुष्य इत्यादिक दुपद, चौपद, भूचर, नभचर, पशुमनुष्यन के युगल तिनकों कौतुक के हेतु तथा द्वेष-भाव करि तिनकं परस्पर लड़ाये होय तथा कोई दो भाईयों को परस्पर लड़ते देख, सुख मान्या होय तथा कोई दोय भाईन में स्नेह देख, नहीं सुहाया होय तथा अपनी चतुराई करि, बीच में माया-दगाबाजी करि, दोय भाईन को परस्पर लड़ाय दिये होंय तथा कोऊ कौ खोटी सलाह देय, परस्पर दोय माईन में द्वेष पाड़ि दिया होय तथा कोई की, भाईन मैं दोष कराने की वौच्छा सहित