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संसार रचनाका जाननहारा, धर्म शास्त्र का पाया है रहस्य जान, यथायोग्य विधि वैत्ता, सो जिसने बल. कुल. धन, बुद्धि, वय इत्यादिक करि जे छोटे, तिन सबका यथायोग्य विनय करि सत्कार करि साता उपजाई होय। तिन सबका मान राखा होय। सो जीव जगतमें प्रशंसा पाय, सर्व करि पूज्य होय । ताकौं जगत्जीव स्वयमेव हो आय-बाय शीश नमा, थाका मान रास, रोसा पदधारी होय तथा जानें कोऊ ही जीवका मान खण्डन नहीं किया होय। पर-जीवन के अनेक आदर करि सुखी किये होंय । इत्यादिक शुभ भावनके फल ते रोसा पद पावै, जो आप तो अपना मान नहीं चाहै, अरु अन्य जोव अपनी इच्छा से यात स्नेह करि आय-आय शीश नमाय, आदर करें। ऐसा जानना। ३६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुनाथ जी! यह जीव दगाबाज-मायावी कौन पाप ते होय ? सो कहो। तब गुरु कही हे वत्स ! दगाबाज के अनेक भेद हैं। सो जिस जीव नैं पर-भव में पराये भले तप को देख, दोष लगाय, ताकी निन्दा करी होय। तो वह पाप के फल ते भवान्तर में जब कबहं मनुष्य होय तप धारण करे, तो मान के अर्थ करे। अन्तरंग में
बाह नहीं रहे। लागत में पुजा को, दगाबाजी भाव करि तपस्वी होय। ताके तय में दगा होय। प्रच्छन्न भोजन लेय, अरु औरन कौ तप-जनशन बतावै। इत्यादिक तप पावै, तो दगा सहित तपस्वी होय
और जिन जीवन ने पराये भले दान में दोष लगाय, दगा करि निन्दा करी होय। सो जीव इस पाप ते भवान्तर में जब कबहूँ मनुष्य होय दान देय, तौ दगा सहित दान का देनेहारा होय। आप दान देय, सो लोगन की तौ बहुत द्रव्य बतावै, अरु आप थोड़ा ही धन दान देय। लोक जानें, याका दान दगाबाजी लिये हैं। सो निन्दा पावे। वस्त्र देय. तो जीर्ण तौ देय, कहै बड़े-बड़े मोल के नूतन वस्त्र दिये इत्यादिक पाप-भावन तें. दान में दगा करनेहारा होय और जिन जीवन नै पर-भव में पराये मलै धर्म, पूजा, सामाधिक, ध्यान, अध्ययनादि अनेक
धर्म-अङ्ग हैं तिनकू देख, शुद्ध धर्म-अङ्गन कौ दोष लगाया होय, ताकौ पाप फल तैं भवान्तर में कबहूँ मनुष्य | उपजें तौ रोसे होंय, कि धर्म का सेवन करें तो भाव रहित करें। प्रभु की पूजा करें, तो भाव रहित करे। अल्प धन लगावै, लोगन कौं कहैं हमने बड़ा धन लगाया है और घर में धन होते भी, धर्म-कार्य में धन का काम पड़े तो अपनी दगाबाजी-चतुराई , अपना निर्धनपना बताय, घर का दुःख बतावै। धर्म मैं धन नहीं खरवें।
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