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अपनी बुद्धि के बल करि, तिनका परस्पर स्नेह कराय, सुखी किये होंय। पर के कुटुम्ब विर्षे परस्पर स्नेह देखि, सबकू साता देखि, आपनै हित पाया होय, आय सुखी भया होय ! पर के कुटुम्ब सुखी करने कू, बहुत धन दिया होय । तन का कष्ट तथा बुद्धि के प्रकाश करि, पर के कुटुम्ब में साता करी होय इत्यादिक शुभ भावनात, । सर्व कुटुम्ब सुखदायक पावै। १६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे संघनाथ ! शरीर विष रोग का समूह कौन से होय? तब गुरु कही-जाने पर-भव में कोऊ की ओषधि दान देते मने किया होय । पर के शरीर में रोग देखि, सुखी भया होय । पर शरीर रोग रहित देखि, आप दुःस्त्र पाया होय तथा पर-जीवन कू, रोग वांच्छा होय । औरन के शरीर में रोग देखि, बहुत ग्लानि करी होय तथा रोगी जोव देखि, तिन पै दया भाव नहीं किया होय तथा जन्य जीवन के तन वि रोगन भी शादी है,बोटाना दई होगा तथा कबहूं, औषधि दान नहीं दिया होय तथा पराये तन में रोग देखि, तिनको हाँसि करि उन्हें बहकाये होय, तिनको निन्दा करी होय इत्यादिक पाप भावन तें रोगी-तन होय । २७ । आगे शिष्य फेरि प्रश्न किया। भो प्रभो ! ये जीव, निरोग शरीर कौन पुण्यते होय ? तब गुरु कही हे वत्स! जिन जीवन ने पूरव भव में सुपात्रन के तन में रोग की बाधा देखि, भोजन समय प्रासुक ओषधि देय, साता उपजाई होय तथा दीन-दुखियन के तन में रोग देखि, करुणा भाव करि रोग नाशने कू औषध-दान दिये होंय तथा पर के शरीर में रोग देख अनुकम्या करी होय तथा पर का निरोग शरीर देखि सुखी भया होय तथा पराये शरीर में रोग देख, ग्लानि नहीं की होय । तिनकी दया करि साता दांच्छी होय इत्यादिक शुम भावन तें रोग रहित शरीर होय है। १८ फेरि शिष्य पूछो। हे गुरुनाथ ! कर परिणामी दुर्जनस्वभाव जीवन में कौन कर्म के उदयतें होय ? तब गुरु कही-हे मव्यात्मा जे जीव दुराचारी नरकन के निवास ते बहुत काल दुःख भोगि निकस होय । सो नरक का या प्राणी पूर्व पापतै महाक्रोधी दुराचारी क्रूर परिणामी होय तथा पूर्व भव में मनुण्याथु का बन्ध करि पोछ कुसंग का निमित्त पाय महाकर हिंसामयी वा होय । सो
जीव पूर्वलो वासना सहित दुराचारी होय क्रोधी होय तथा जाका पर-भव बुरा होय । हे गुरो! सज्जन भाव सहित | जीव कौन पुण्य तें होय है? तब गुरु कही-हे वत्स ! जो जीव देव गति आदि शुभ गति से आया होय । सो जो पूर्व भव की भली चेष्टा थी सो ताही के लिये दया-भाव के फल तैं महान पुरुषन की संगति पाय तामें भले उपदेश