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मिथ्यात्व आप तज्या चाहै कुदेवादिक को सेवा का भी त्याग करै, परन्तु कारण पाय कबहूँ न कबहूँ अतत्त्वभाव उपज है। मिथ्या-भाव ते अतत्व उपजै तथा जिन भाषित में संशय होय, सो मिथ्या शल्य है । २ । जहाँ धर्मसेवन निरवान्छित होय के सेवते ही चित्त में कबहूँ न कबहूँ धर्म-सेवनतँ पहिले ही सेवन के फल की वांच्छा होय कि धर्म का मोकौं क्या फल होगा ? तथा नहीं होयगा तथा ऐसा फल उपजियो इत्यादिक भाव विकल्प, सो अग्रसोच (निदान) शल्य है। ३। इति ।
आने निक्षेप च्यारि का स्वरूप कहिये है। प्रथम नाम-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव अब इनका अर्थ-तहां कोई वस्तु का कछु नाम कहना, सो नाम निक्षेप है। कोई वस्तु का आकार करना, सो स्थापना निक्षेप है ।२। और कोई वस्तु-पदार्थ होवे की कोई वस्तु होय सो, द्रव्य निक्षेप है । ३ । वस्तु प्रत्यक्ष होय, सो भाव निक्षेप कहिये है। ४। यहां इनका दृष्टान्त करि कहिये हैं। जैसे-वृषभ आदि तीर्थङ्करों के नाम लेय सुमरन करि पुण्य का बन्ध करना, सो नाम निक्षेप है।।
चौबीस तीर्थङ्करों के शरीर के आकार वर्ग लक्षण रूप सहित कायोत्सर्ग तथा पद्मासन प्रतिमा रतन की स्वर्ण की चाँदी की धातु की मनोज्ञ उत्तम पाषाण की स्थापना करि, पूजा-स्तुति करि, पुण्य उपार्जन करना, सो स्थापना निक्षेप है। २।
तीर्थङ्कर का जीव पर-गति में ही है। अरु षट मास पहिले नगर की रतनमयो रचना पञ्चाश्चर्य करि उपजावना तथा जो तीर्थङ्कर भये हैं । तिनके गर्भकल्याणादि अतिशय का उछाह करि, स्तुति करि, पुण्य का बांधना । सो द्रव्य निक्षेप है। तीर्थङ्कर भये नहीं हैं। परन्तु वह गर्भ में तिष्ठती आत्मा तीर्थङ्कर होने योग्य है। काल पाय
तीर्थङ्कर-पद पावेंगे। सो द्रव्य तीर्थंकर कहिये । सो इनकी सेवा पूजा किये पुण्य-बन्ध होय है सो द्रव्य निक्षेप है।३। । जहाँ समोशरण सहित गन्ध कुटी वि सिंहासन युक्त कमल तिसत अन्तरिक्ष चार अंगुल विरामपान भगवान
। घातिया-कर्म नाश करि अनन्त चतुष्टय सहित विराजमान दिव्य-ध्वनि करि उपदेश देते तिष्ठं सो भाव निक्षेप है। १५८ इनकी पूजा-स्तुतिकं करि पुण्य उपजावना, सो भाव निक्षेप है।४।
लगाकर तिर प तीर्थकर है। यहां एक दृष्यन्त और भी कहिये है। कार का नाम सिंह कहना, सो,