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तौ पर्याप्त जीव के सम्भव है और अपर्याप्ति कर्म के उदयवाले के कैसे सम्मवै ? ताका समाधान—जो इस। लब्धि अपर्याप्त जीव का आय. श्वास के अठारहवें भाग है। ताके तीन भाग कीजिये, सो दोय भाग बिना एक । भाग अन्त का है। सो याका परिणाम योग स्थान जानना। ये तीन योग स्थान कहे। इनका विशेष श्रीगोम्मटसारजी के जीव काण्ड तें जानना। इति ।
आगे धर्म में अरुचि होवे के तीन कारण बताइये हैं। राक तौ जो जीव जन्म का हो अज्ञान है। ताकों अज्ञानता के योग करि धर्म से अरुचि रहे है। ३। कोई जीवकै कषाय के दोष ते धर्म अरुचि होय है। 21 कोऊ के धर्म-सेवन करते हो, पाप के उदय तें अरुचि होय । ३ । अब इनके दृष्टान्त दिखाइये है। तहाँ जैसेकोई जीव जन्म-रोगी तथा जन्म-दरिद्री इन दोऊ हो मैं कबहुं घृत-मिश्री का भोजन नहीं किया। इनके स्वादक कबहूँ नहीं पाया। तैसे ही कोई पापात्मा अनादि ज्ञान-दरिद्री मिटया रोग पूरित सहज ही अन्नानता करि पापपुण्य के भेदक नहीं जाने। तातें धर्म तें अरुचि होय है। ३ । दुसरा जो कोई जीव कषाय करि तथा जाकै कोई खोटी आयु का बन्ध होय गया होय ताकरि कोई ते लड़-पड़ा। सो वाके ऊपरि अपघात करवेक कूप, नदी, बाधड़ों में पूर्वदि मरे तथा कोई जहर खाय व छुरी-कटारी करि, मरे। तैसे ही पाप-कर्म के उदय करि धर्म सेवन करता मी काहू ते द्वेष-भाव करि धर्म ते अरुचि करै है। २। कोई अच्छी तरह खाता-पीता जीव के पापकर्म के उदय ते पेट में रस बढ़ चल्या। ताके योग त खान-पान तं अरुचि होय चली। ज्यों-ज्यों पेट में रस बढ़ने लगा त्यों-त्यों रोग बढ्या । त्यों-त्यों अन ते अरुचि होय चली तैसे हो अच्छा मला धर्म-सेवन करता ही जीव पाप उदय तें तथा कोई खोटो गति के बन्ध तैं तथा जायु के बन्ध योग से शनैः-शनैः धर्म तैं अरुचि करै है। दीरघ आरति के योग ते भोगासक्त भया ताके दोष करि धर्म त अरुचिकर है।३।ये तीन भेद-भाव तें धर्म में अरुचि करि पाप-बन्ध करि आत्मा अपना पर-भव बिगाई है। ऐसा जानना। इति।
आगे तीन शल्य के भेद कहिये हैं—माया शल्य । समिध्या शल्य।२। अग्र सोच (निदान) शल्य ।३। ॥ इनका अर्थ-तहाँ माया को परिणति आप तण्या चाहै है। धर्म-सेवन करै। परन्तु अपने हदयतें माया नाही जाय। कबहूँ न कबहूँमाया की वासना प्रगट हो ही जाय सो माया शल्य कहिये। २जहां धर्म-सेवन करते
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