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रठित क्षेत्र चाहिये. ताते ध्यान की सिद्धि होय। जा तथा महापर्वतन को गफा होय ।। तथा उत्तंग मनोहर, | उदार पर्वतन के शिखर होय।। तथा निर्मल जल करि सहित बड़े सरोवर तथा बहती गहन बड़ी नदी, तिनके तट ध्यान योग्य हैं। ६ । तथा जीर्ण उद्यान, अरु महाभयानोक, मोही जीवनकू उपजावनहारी, विकट, वृक्ष रहित अटवी, ध्यान योग्य क्षेत्र है। ७ । तथा दोरघ सघन वृक्षन करि भरचा वन होय, सो ध्यान योग्य क्षेत्र है। और जहां अति शीत नहीं होय, ते क्षेत्र ध्यान योग्य हैं।६। तथा जहां बहु उष्ण नहीं होय, सो क्षेत्र ध्यान योग्य है।३०। ऐसे दश क्षेत्रन में ज्ञान-वैराग्य के बढ़ाने रूप माव होय। धीरजता होय, क्षमा भाव होय। इत्यादिक भाव सहित ध्यान सिद्धि के क्षेत्र जानना। आगे परिणामों को विशुद्धता कू कारण, आलोचना भाव है। सो आलोचना के अतिचार दश हैं। तहां प्रथम नाम कहिये—आकम्पन, अनमापित, दिष्ट, बादर, सूक्ष्म, शब्दाकुल छिनि बहु पारिवाःतन सेवा हो ए एस जया निकासानन्य स्वरूप कहिये है--जहां कोई मुनीश्वर कौं अपने संयम में दोष लाग्या दोखै। तब वह यतीश्वर पाय का भय खाय गुरुन पै पाप दूर करने कूदण्डप्रायश्चित्त जांचता भया। सो दण्ड जाँचता कबहूँ ऐसा विचार करें जी आचार्य दीर्घ दण्ड नाहीं बता तो भला है। ऐसा भय करना सो आकम्पन दोष है।। और कोई यति को दोष लाग्या होय तो अपने गुरु 4 जाय अपने प्रमाद को निन्दा करै। आलोचना सहित अपना लाग्या दोष प्रगट करि गुरु दण्ड जाँचता ऐसा विचार करै जो मेरा तन निर्बल व रोग पीड़ित है सो दोरघ दण्ड सहवे की मोरी शक्ति नाहीं। तात आचार्य मोकौं अल्प दण्ड बतावै तौ भला है। ऐसे विचार का नाम अनमापित दोष है। २। और यति आपको कोई दोष लाग्या जानै तौ विचारैं। जो मेरा दोष फलाने में देखा है तो अपना दोष गुरु 4 कहैं अपनी निन्दा-आलोचना करें और जो अपना दोष काहू ने नहीं देखा होय तो गुरु नाही कहैं ! ताका नाम दिष्ट दोष है।३। यतीश्वर
को कोई सूहम दोष लागा होय तो गुरु नाहां कहैं । कोई बादर-बड़ा दोष लागा होय तो मान के निमित्त ३७६ | और के दिखावने कौ आचार्य वै कहैं आलोचना करें सो बादर दोष है 181 जहां मुनीश्वर की कोई बादर
दोष लाग्या होय तौ आचार्य के पास नहीं कहैं और सक्ष्म दोष लगा होय तौ मान-बड़ाई लोक-प्रशंसाकों गुरु जाय प्रकाशैं। अपनी आलोचना करें। सो सूक्ष्म दोष कहिये । ५१ और कोई मुनि को दोष लागा होय