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से शौच नाहीं पलें । ३ । बुद्धि रहित होय तार्के योग्य-अयोग्य के विचार का विवेक नाहीं । ज्ञान की मन्दता के योग करि पशू समानि खान-पानादि करें रात्रि दिवस का भेद नाहीं, भक्ष्य-अभक्ष्य का ज्ञान नाहीं तातैं बुद्धिरूपी सम्पदा करि रहित होन-बुद्धि जीव तैं शौच नाहीं पलै । ४ । और कुसंग के धारनहारे, सप्तव्यसनी जीवन के स्नेही, तिनकी संगति ते, स्नेह के बन्धान करि तिनमें तिन जैसा ही खान-पान करें। होन कुली, होन ज्ञानी, सप्तव्यसनी, जैसा अनाचार रूप खान-पान करें। तैसा हो तिनको संगति में आपकों करना पड़े। तातें कुसंगीन तैं शौच नाहीं पलै । ५ । मदिरापायी कूं सुध-बुद्धि नाहीं। खान-पान के योग्य-अयोग्य खाद्य अखाद्य का ज्ञान नाहीं । जैसे--- खपत - बेसुध होय, तैसे ही मदिरापायी बेसुध है । तातें मदिरापायी तें शौच नाहीं पलै । ६ । और पराधीन होय, सो पराई मर्जी सौं चाल्या चाहै। आप दयावान संयमी होय, बरु संयमी का सेवक होय । तौ आपके तौ संयम पालने का काल है। यदि स्वामी संयमी न होय, तो जा समय सरदार ने कही, यह आरम्भ करो । सो नहीं करै तौ आज्ञा भङ्ग भये, चाकरी बने नाहीं । तातें असंयम रूप आरम्भ ही कार्य, संघम के काल मैं करना पड़े। इत्यादिक पराधीनता तैं शौच नाहीं पलै । ७। और जे आलसी प्रमादी होंय, सो जैसा मिले तैसा भक्षण करें। प्रमाद के वशीभूत खाद्याखाद्य याग्यायोग्य नहीं विचारें। तातें जे आलसी प्रमादी होय, तिनसौं शौच नाहीं पलै ऐसे और ग्रन्थ के अनुसार कला है। जो इन आठ जाति के जीवनतें शौच नाहीं सधै तातें इनक धर्म-लाभ नहीं होय और शुभाचार इनके हृदय में तिष्टता नाहीं। ऐसा जानि विवेकी जीवनको इन आठ जातिकै निमित्तन तं रहित होय, सुआचार रूप रहना योग्य है। आगे निमित्त ज्ञान के आठ भेद हैं सौ कहिये हैंगाथा --- अंग भोम अंतरखऊ, विजण सुर छिन्य लक्खणरे सुपणक । इव वसु भेयव भणियं, गिमित णाणाय देव सर्वज्ञो ॥ ११९ ॥ अर्थ - अङ्ग कहिये, शरीर । भोम कहिये, पृथ्वी अन्तरखऊ कहिये, अन्तरीक्ष विजरा कहिये, व्यंजन निमित्त । सुर कहिये, शब्द । छिराय कहिये, छिन। लक्खणो कहिये लक्षण । सुपराऊ कहिये, स्वप्न । इव वसु भयव कहिये, ए आठ भेद । भणियं कहिये, कहे हैं। शिमित्त शाशाय कहिये, निमित्त ज्ञान के देव सर्वज्ञो हिये, सर्व देव । भावार्थ-निमित्त ज्ञान के जाठ भेद हैं सो हो कहिए हैं। मनुष्य पशु के तन के अङ्गोपाङ्ग करारी आए।
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