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नारकीन की सो अचित्त योनि है । २ । कैईक योनि स्थान सचित्त-अचित मिले स्कन्ध को हैं, सो मिश्र योनि स्थान है । ३ । उपजने के पुद्गल स्कन्ध शीत होंय जैसे- सातें व छठें नरक के नारकी की शोत योनि है । ४ । उपजने के योनि स्थान के पुदुगल स्कन्ध उष्ण होंय । जैसे—तीजे वा चौथे नरक पर्यन्त नारकोन के उपजने के उष्ण योनि स्थान हैं । ५। अरु उपजने के स्थान शीत, उष्ण दोऊ स्कन्ध रूप होंय सो मिश्र योनि स्थान हैं | ६ | जीव उपजने का योनि स्थान प्रगट नहीं दीखै सो संवृत योनि स्थान है। ७ । उपजने के योनि स्थान प्रगट दीखें सो विवृत योनि स्थान है । ८ । जीय उपजने के योनि स्थान के पुद्गल स्कन्ध कछु प्रगट होंय कछु अप्रगट होंय सो मिश्र योनि स्थान है । ६ । ऐसे सामान्य मेद नव कहे, विशेष चौरासी लाख हैं। इति योनि स्थान । आगे इन योनिन तैं उपजे जीव तिनके कौन-कौन के शरीर में निगोद नाहीं सो कहिए हैं
गाथा — केवलकायमहारी, सुरणारय तण भौमि जल तेक बाय व इव ठांणय रहि नहि शिगोय जिण भणियं ॥ ११७ ॥
अर्थ-केवली के शरीर में, आहारक शरीर में देवन के शरीर में, नारकीन के शरीर में, पृथ्वीकाय, अपकाय, ते काय और वायुकाय — इन आठ स्थानन में निगोद नाहीं। ऐसा जानना। आगे इन आठ जाति के जीवनतें शौच नहीं पलै, ऐसा बतावें हैं -
| गाथा - रोगी लोलु दलद्दो, दुधहोणो कुसंग होय मंद पाणी परवस आलस सहितो एवसु मादाय सोच यह पालय ॥११८॥
अर्थ -- रोगो, इन्द्रियन का लोलुपो, दरिद्री, बुद्धि हीन, कुसंगी, मद पायो, पराधीन और आलसी – इन. आठ जाति के जीवन तें शौच नाहीं पलै । भावार्थ - रोगी तो अति वेदना के आगे खाद्य-अखाद्य योग्य-अयोग्य नाहीं विचारै । अपवित्र पवित्र नहीं विचारै। मारे वेदना के जो मिलै सो ही खाय । मूढ़ वैद्य जैसा भक्ष्य- अभक्ष्य कहै, सो खाय । तातें शौच नाहीं बने। १ । जो इन्द्रियन का लोलुपी होय । सो खाद्य-अखाद्य, योग्य-अयोग्य नहीं विचारै । जैसे बनें तैसे अपने विषय का पोषण करें। अपने कुल योग्य खान-पान का विचार नाहीं । तातैं तिन लोलुपी तैं शौच नाहीं पलै । २ । जे पूर्व पाप के उदय करि भये जो दरिद्री, सो मारे दरिद्री के केवल उदर पूरण ही करचा चाहें। सो योग्य-अयोग्य नाहीं विचारें जैसे बनें तैसे उदय भरचा चाहें। ताके तृष्णा अधिक सो तृष्णा पुण्य तैं पूरी जाय अरु पुण्य, आगे उपाय नाहीं । तातें पुण्य रहित जीव जैसे-तैसे पेट भरे सो इस दरिद्री
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