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केतक दिन में वृद्ध भया । तन की शक्ति घटी। पुत्र बालक था सो तरुण भया। तब पुन का व्याह करि घर का धनी करन्था। सर्व घर का धन धान्य पुत्र ने पाया। अब पिता का तन, दोन भया। इन्द्रिय बल घट्या । तब पुत्र पैं भला भोजन माँग, सो नहीं देय । वस्त्र मांग, नहीं देय। देय तो तुच्छ देय या बहकाय देय । सो अपयश की मूर्ति, लोभी पुत्र, पिता का ठगनेहारा कहिये और अपनी स्त्री, भला भोजन-वस्त्र
आभूषण मांगे। कहै हे पति ! औरन के घोसी देख.. पाय-यहरे है. अनारे पर में बड़ा | धन है अरू हमारा यह हवाल है। जो अन्न, तन की तो देय। ऐसे दीन वचन स्त्री कहै । परन्तु यह लोभी
स्त्री कुंभो न देय । सो स्त्री का ठगनेहारा कहिये और अपने मित्रन की मजलिस में जाय, सो उनका धन तो आय खाय आवै। अरु अपना धन मित्रन के नहीं खुवावै । सो मित्रन का ठगनेहारा कहिये। ऐसा कृपरा, अशुभ परिणति का धारी, दया-भाव रहित है। र कठिन उर का धारी सूम, सी मरें, अपना तन का घात करै, परन्तु दान के निमित्त घास का तिनका नहीं देय । ऐसा सूम, निर्लज, दुर्भागी. निन्दा का पात्र, धर्म भावना रहित, जीवित ही मृतक समानि जानना। भावार्थ-रोसे इस जीव का जीवना वृथा है। रा सूम जैसा जीया तैसा न जीया। आगे भिक्षुक है सो मांगने के मिस करि, मानू घर-घर उपदेश ही देय है। ऐसा बताइये हैमाथा-भिक्षफ पय-षय बोधय, भो सत्त पुंसाह देह धण दाणं । विण दीए मम जोबो, सहवण वार-बार जाती ॥१३॥ ____ अर्थ-भिक्षक घय-घय वोधय कहिये, मँगता घर-घर उपदेश देय है। सौ सतपंसाह कहिये, मो सत्पुरुष हो ! देश धन दाणं कहिये, धन को दान में देओ। विश दोरा मम जोवो कहिये, बिना दिये मोकों देखो। लहुवण कहिये, मैं तनक-सा होय । वार-वार कहिये, घड़ी-घड़ी। जाचन्ती कहिये, मांगों है। भावार्थ-ग रङ्क जो भिक्षा मांगनहारे-मंगता, घर-घर विर्षे भख के मारे याचते फिरें हैं। सो आचार्य कहैं हैं। ए रक्त पाप जाँचें नाहीं हैं। मानू कृपणा, कठोर चित्त के धारी, दया रहित जीवन कू अपनी दशा दिखाय, उपदेश ही देय हैं। तिनके निमित्त ए भिक्षा मांगनेहारे घर-घर में ऐसा कहते फिरें हैं। हे धर्मात्मा पुरुष हो। तुम्हारे पास धन है सौ ताकी दान में लगानो, दान कू करौ। नहीं तो पीछे इमारी-सी नाई पछतावोगे।
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