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भरतार, स्त्री को इन कारणन में परखै। मित्र, मित्र इन कारणन में परने और भाई, भाई को इन ! । कारणन में परखै। पुत्र, पिता को इन कारणन में परमार पिता, दाना परो । वेवक स्वामी क और स्वामी, सेवक के इन कारणन में परखें और चित्त की धीरजता, धर्म कार्यन में, तप करते, संघम की रक्षा करतें, इन कारण परखिये । इत्यादिक कहे जे धर्म-कर्म सम्बन्धी कार्य सर्व-अंग, इन नव अवसरन में दृढ़ रहै। सो साँचा धर्म-कर्म अंग जानना। बाकी पुण्य-उदय में अपने-अपने स्वार्थ पूरने में तौ. सब ही सहाय करें व धर्म सेवन करें। परन्तु ऊपर कहे अंगन में-असहाय में दृढ़ रहै, सो धन्य कहिये ।७। आगे एक दुःख कौं अपनी-अपनी कल्पना करि, अनेक उपचार बताउँ, सो कहिये हैंगाथा-वेद्यो कथयत रोगो, भूतो चयटक गहण मन्तीए। पूयो पाजय गांणय, एक गद जया दिट्टि भारान्ती ।। ७२ ।।
अर्थ-इस जीव कौं कोई पाप उदय करि, एक रोग होय । ताकौं जगत् के चतुर जीव, अपनी दृष्टि माफिक उस दुख का कथन करें। सो कोई वैद्य कौ पछिए, जो हमैं खेद काहे तें है, सौ कहो । तो कोऊ ज्वर, वाय, खांसी, स्वासादि रोग बतावे और कोऊ मन्त्रवादी-चेटकोक पूछिये । जो हम दुखी हैं. सी क्यों हैं ? तब कहै, तुमकों ऊपरला फेर है । जोरावरी भूत-प्रेत की फरपट में आये हौ। सो हम मन्त्र, जन्त्र, तन्त्र गंडा कर देंगे, सो सब रफे होय साता होय जायगी और निमित्तज्ञानीक पूछिये, जो हमकू खेद क्यों है ? तब कहै, तुमको शनीचर-मंगलादि ग्रहों की करता है। सो इनका किया खेद है । तातें इनकी पूजा करौ। दान देऊ । फलाने नक्षत्र में साता होयगी और कोऊ धर्मात्मा, संसार-भ्रमण का जाननहारा, पुण्य-वाप का समझनेहारा, तत्वज्ञानी, सम्यग्दृष्टि कं पूछिये, जो हमको खेद है सो क्यों ? तब समता-रस-रंगोला कहै । भो भव्य । कोऊ पूरव उपार्जित पाप का अश्म-फल प्रगट भया है। इस भव में ताने दुख किया है। तातें | तुम विवेको हो, पाप का फल रोसा दुखदायक जानि, पाप मति करौ। तातै पर-भव में फेरि दुख नहीं । होयवेकंधर्म-सेवन करौ, पर-भव सुख पावोगे । धर्मात्मा रोसी कहै। ऐसे राक दुख होय, ताके दूर करने के प्रथि, जो कोई कूपूछिये, सो अपनी-अपनी जैसी-जाको दृष्टि होय, जा वस्तु के अतिशय में जाका चित्त रसायमान होय, सो ही इस जीव कू सहायकारी भासै है सो जैसा जाका ज्ञान था तैसा ही इन्होंने इलाज.
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