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सज्जन का तन शरीर धन, वचन । इपर उपकार कारणं सव्वे कहिये, ये कही जो वस्तु सो सब पर उपकार के निमित्त बनी हैं। भावार्थ-नदी का जल, नदी नहीं दी। पपकर निमित, अन्य जीवन के पोधने कौं, सुखी करने को, जल का प्रवाह सहज ही बह्या करें है। फूल की खुशबू, फूल नहीं सूंघें है। परन्तु और जीवन के सुखी करने कूं, फूल खुसबू कौं धारें हैं और वृक्षन की सघन शीतल छाया में, वृक्ष नहीं बैठें हैं। जीवन के सुखी करने के अर्थ, परोपकार कूं, सघन छाया कूं वृक्ष धारें हैं और वृक्ष के मनोहर मिष्ट फल, वृक्ष नहीं खाय हैं । परन्तु पर के उपकार के निमित्त, अन्य जीवन कौं पोषने कूं, सुखी करने कूं, वृक्ष फल धारण करें हैं। ये औरन के पत्थर भी खाय, मिष्ट फल देंय, ऐसे उपकारी हैं। सांठे हैं सो आपनौ मिष्ट रस, आप नहीं भोगें हैं। परन्तु पर के उपकार कूं, पर के पोखने कूं, सुखी करने कूं. रस को धारण करें हैं। ऊपर कही वस्तून के गुण, सो सब पर उपकार के कारण हैं। तैसे ही सज्जन धर्मात्मा दयावान् पुरुष हैं, तिनका शरीर - पुरुषार्थ, पर जीवन की रक्षा कौं पर उपकार के निमित्त बन्या है और जीवन कूं सज्जन नाहीं सतावें हैं और सज्जन पुरुषन का वचन भी पर उपकार के निमित्त है। जैसे--पर- जीव का भला होय पर जीव सुखी होंय ऐसा वचन बोलें हैं और सज्जन का धन पाप-हिंसा में नहीं लागे । जहां अनेक जीवन कूं पुण्य उपजै धर्मात्मा जीवनकूं अनुमोदना करि पुण्य उपजावै तथा अनेक जीवन की जहां रक्षा होय इत्यादिक धर्म स्थानकन में सज्जन का धन लागे। ऐसे ऊपर कहे जे-जे स्थान सो सर्व पर उपकार को बने हैं, ऐसा जानना । ८२ । आगे इन षट् स्थानन में लज्जा नहीं करनी, ऐसा कहिये है
गाथा --- जिण पूजा मुणि दांणउ पसाखाणाय झांण आलोय । गुरुय णिज बघ जंपय वह षड भाणेय लज नहिँ बुद्धा ॥ ८३ ॥ अर्थ – जिरा - पूजा मुरा दांराउ कहिये, जिन-पूजा अरु मुनि दान में पत्ताखाणाय झारा आलोय कहिये, त्याग में, ध्यान में, आलोचना में । गुरुय शिज अघ जंपय कहिये, गुरु थाणेय लज्ज नहिं बुद्धा कहिये, इन षट् स्थानकन में लज्जा नहीं करनी। पूजा का फल नाहीं पाये। तातें अन्तर्यामी सर्वज्ञ वीतराग भगवान की पूजा निशक होय अष्ट-द्रव्य तें करनी ।
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उत्तम फल हो । २ । और यतीश्वर के दान देने विषै लज्जा करें तो दीन के फल का अभाव होय तातें
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समीप अपने दोष कहने में भावार्थ-- जिन-पूजा में लज्जा करे तो
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