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अर्थ---पूठय काजय हन्ता कहिये, जो पीछे तो कार्य का घात करें। पतखों पीय वयण सिरणावो कहिये, प्रत्यक्ष मोठा बोले, मस्तक नवावै। सय सठ माया पिंडऊ कहिये, सो मरख दगाबाजी का पिण्ड जानना । जय । विस कुंभीय वदन पय जेहो कहिये, जैसे-मुख पै दुध लग्या विष ते भर या कलश होवै। भावार्थ-जो कोई रोसा दुर्बुद्धि-कुटिल अपना मित्र होय, तो ताकौ पहिचान के तजना भला है। कैसा है वह मित्र? पीठ पीछे तौ अपनी निन्दा करे, हाँसि करे। सदेव रोसा छल देखा करै जाकरि मान खण्ड करै तथा धन नाश करावै। मारने कं, दुःखी करवे कंछल दिसा करें। इत्यादिक दुलारास। अस प्रत्यक्ष मिले तब मह पै हाथ जोडि, बारम्बार बहुत शीश नवाय, विनय करे, मिष्ट वचन बोले, मुख-प्रसन्न करि बातें करे, स्नेह जनावै, सेवक होय रहै। धरती तें हस्त लगाय सलाम करें। पुत्र-सा होय रहै। किन्तु अन्तरङ्ग को दुष्टता नहीं तजै। ऐसे दुष्ट चित्त का धारी पाखरडो, मायावी भित्रकं तजना हो सुखकारी है। कैसा है यह मित्र ? जैसे—विष का भरया कलश होय, ताके ऊपर थोरा दूध भर या होय। सर्व अनजान जोवन कू, सर्व कलश दुध का भरचा भासै। सो कोई याकौं दूध का भरचा जानि, ऊपर के दुध कू खायगा तौ प्राण तजेगा। तातै वह दुध भी जहर समानि है। तात या सर्व ही विष का भरया जानि, तजना भला है । तैसे हो अन्तरङ्ग दोष करि भरचा, मुख मीठा, रोसा मित्र, विष के कलश समानि जानि तजना योग्य है। आगे एती सभा विर्षे विरोध वचन न बोलै। ऐसा बतावै हैंगाथा-धम्मसभा णिप पंचय, जाय लोयाय बन्धुवगणाणी । इणविरुद्ध षच करई, सचर सठ लोयणिद दुहलेहो ॥१०॥
अर्थ-धम्म सभा कहिये, धर्म समा। णिय कहिये, राज्य सभा। पंचम कहिये, पंच सभा। जाय कहिये, जाति सभा। लोयोय कहिये, लोक सभा। बन्धु वगणाणी कहिये, बन्धुवर्गों में। इविरुद्ध वच करई कहिये, इन विरुद्ध वचन का बोलना। सचर सठ कहिये, सो जीव मूरख । लोयनिन्द दूह लेही कहिये, लोक निन्द।
अरु दुःख पावै। भावार्थ-विवेकी हाँथ सो राती जायगा मैं सभा विरुद्ध वचन नहीं बोलें और रोतो समान में || सभा विरोधी बोबै. ताकं मुर्ख कहिये। सो हो बताईए है। एक तो मोक्ष-मार्ग सूचक धर्म तथा धर्म के कारण जिन-धर्म को सेवनहारे धर्मात्मा जीव। तिन धर्मात्मा जोवन की सभा विर्षे सर्व धर्मात्मा जीव धर्म को बढ़ावे कौं, प्रभावना होवे कौं, पुण्य बढ़ावे कू नाना चरचा करते होवें। तिस अवसर में सर्व सभा के धर्मात्मा पुरुषों ने ऐसा