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चाहे जेता पोषों, ताके ऊपर चाहे जेता उयकार करौ; परन्तु इसका जब प्रयोजन नाही साध्या तबही सर्व गुण भलि करि औगुण ही अङ्गीकार करें। यह अवगुणग्राही इसका अनादि स्वभाव ही जानना । ऐसे जौंक अरु दुर्जन इनकी प्रकृति स्वभाव है। सो अपने स्वभावकू कोई तजतानाहों। कोई जतनते स्वभाव काहू का पलटता
३५१ नहीं। सो रेजा जानि इहपुजा समय करना मना है। आगे अपने भावन की उपारजनात ही रोग की दीरघता होय है, ताही कों बतावै हैंगाथा कच कच गद विण संखो जे पुब्बो पाय जन्तु तण होई । उदय काल अपठो भोगे ण व्यण और को पायो ॥१०॥
अर्थ-कच-कच कहिये, रोम-रोम । गद विण संशो कहिये, अगणित रोग हैं। पुब्यो पाजेय जन्तुतण होई कहिये, अगले भव के उपारजे, जीव के शरीर में होंय हैं। उदय काल अण्ठो कहिये, उदय आये अनिष्ट है। भोगे ण ठयण और को पायो कहिये, भोगे हो जाय और कोई उपाय नाहीं 1 भावार्थ इन संसारी जीवन के तन विर्षे देखिये, तौ एक-एक बाल के ऊपर अनेक-अनेक रोगन की उत्पत्ति है। रोमरोम, रोगन ते भर या है। सो इस जीव ने पुरव भव में जैसे उपारजे हैं तैसे ही शरीर में रोग हैं। सो तिष्ठे हैं, सत्ता में बैठे हैं। सो वर्तमान काल तौ कोई ही रोग दुखदायी नाहीं। परन्तु जब आबाधा काल पूरस होय उदय जावेंगे, तब महाभयानीक दुःख कू करेंगे। तब अनिष्ट लागेगा। दीरच वेदना प्रगट होयगी। तिनके आगे, भारमा दुःख भोगता-भोगता शिथिल होयगा । अनेक कष्ट उपजेंगे। तिनके दूर करवे कुंकोई की सामथ्र्य नाहीं। मन्त्र, तन्त्र. जन्त्र, देव साधन, ज्योतिष, वैद्यक इत्यादिक सर्व उपाय वृथा होय हैं। तातें पुरव पाप-परिणामन का बन्ध, ताकौं भोगे ही जाय है और कोई मैटने का उपाय नाहीं। रोसा जानि विवेकी धर्मात्मा पुरुषन • उदय आई असाता मैं समता सहित दृढ़ रहना योग्य है। आगे और दुःख मैटने
का तथा रोग के मेटने का तौ उपाय है, परन्तु काल का उपाय नाहीं। ऐसा बताई हैं| गाया-सुवा अण तिषणोरो, आमय कुठादि होउ उवचारो। अन्तकणह उवचारो, हरिसुर कम्पय दीग लख होई ॥१०५||
अर्थ-सुधा अरण कहिये, सुधाकू बन्न । तिषणोरो कहिये, तृषाकू नीर । आमय कुठादि होऊ उपचारो || कहितकोढ़ की प्रादि लेय सब रोगों का भी उपचार है। अन्तक राह उपचारो कहिये, परन्तु काल का