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काल के भय करि रहित हैं। तात जे पारि गति के मरण ते भागि, काल तें बच्या चाही. तो धर्म का शरण लेह बी और शरण नाहीं । आगे अग्नि-भेद तीन प्रकार हैं। सो रा अग्नि काहे-काहे जाले ? ऐसा बता है
गाथा-सोगोणल जे दय, दमय जे आतिझाण वहणीए । उपला अयणी दझय, इव त्रय ज्वालाय काय मण दाहू ॥ १७ ॥ | अर्थ--सोगोणल जे भय कहिये, जै शोक अगनि तें जलें। दमय जे आतिझारा वहसीए कहिये, जे बात
ध्यान रूप अग्नि तै जल्या । उपला अयणी दझय कहिये, जे काष्ठ-छाणे (कंडा-उपला) के अनि तें जला। इव त्रय ज्वालाय काय मण दाहू कहिये, इन तीन अग्नि कर काय-मन जाले है। मावार्थ-शोक अगनि के बहुत भेद हैं। तही असात काम के उदयत इट वस्तु का वियोग भया । ताके निमित्त पाथ, कर्म के उदध करि भई जो मन को भस्म करनहारी शोक रूपी अनि, सो ताकर दग्वायमान जो जीव, सो सदैव चिन्तावान मया, अशुभ-कर्म का बन्ध करता, दुःखी होय । तन दुर्बल होय । ताते इस शोक को अग्नि कहिए । जैसे-अग्रि का दग्ध्या पुरुषकं दुःख के आगे अन्न नहीं भावे, निद्रा नहों आवै। सुख के निमित्त नृत्यादि मिले तो भी दाह के दुःख तें सुखी नहीं होय। तैसे ही शोक- अग्नि करि जाका हृदय जल्या होय, ताकौं शोक ते अन्न नहीं भावे, निद्रा नहीं आवै। अनेक गीत, नृत्य, वादिन्नन के सुख अरुचि होय, सुख न होय। इस शोक के तीव्र उदय में बुद्धि नष्ट होय। उक्तिजुक्ति नहीं उपजे है। भला ज्ञान का अभाव होय । पढ्या ज्ञानादिक यादि नहीं आवै। अनेक रोगन की उत्पत्ति होय । इत्यादिक दुःख, शोक अगनि करि जल्या, ताकै प्रगटें हैं। जाके शोक अनि उर में होय, ताके वाह्य चिह्न
एते होंय, सो कहिरा हैं। चित्त तो ताका विभ्रम रूप, भ्रमता होय। गाल पे हस्त देय के बैठना । अश्रुपात होना। । दीर्घ श्वासोच्छवास लेना। रुदन करना। ए सबही कारण दुःख के बढ़ावनहारे हैं। ताही से विवेको समता
दृष्टि के धारी धर्मात्मा, इष्ट-वियोग में शोक नहीं करें। ए तो शोक-अग्नि है ।। अब जात-ध्यान रूप अग्नि है। सो याकौं, कारण रूपी पवन जब मिले है। तब प्रज्वलित होय, दाह उपजावै है। सो हो कहिए है। जो भलो
वस्तु गई, ताके विचार ते पात-अग्नि बढ़े है तथा खोटो वस्तु के मिलाप की चिन्ता, ताके निमित्त से आत-अग्नि ३५८
बढ़े तथा रोग पीड़ा काहू को देख ऐसा विचार उपज्या, जो मेरे रोग न होय तो भला है तथा मेरो रोग कैसे जाय ? ताकी आत-अग्नि प्रज्वल है और कार्य किए पहिले, आगामी फल की प्रारति । इत्यादिक अनेक प्रकार