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गाथा-जम्मण मण जग लगऊ, सुरणरणारय तिरीय किंह भाजय। सहु अंतक मुह कवलय, एको संणाय धम्म अणिणाहो ११०७॥ । अर्थ-जम्मण मण जग लगऊ कहिये, जन्म-मरण जग कौं लागा है। सुर कहिये, देव। पर कहिये, सा मनुष्य । णारय कहिये, नारकी। तिरीय कहिये, तिर्यच । किंह माजय कहिये, कहाँ भागें। सह कहिये, सर्व हो। | अन्तक मुह कवलय कहिये, ए सब अन्त में काल के मुख का ग्रास हैं। एको संगाय धम्म कहिये, एक धर्म
का शरण है । अणिशाहो कहिये, और नाहीं। भावार्थ-शरोर-इन्द्रिय नाम-कर्म के उदय ते नवोन पर्याय का उपजना, सो तो जन्म कहिये और उत्पत्ति भई थी जो पर्याय सो अपनी थी, मर्याद पर्यन्त रही। पोछे आयु के पुरण हो पप ते छुट जयगति गाना नगर कही। इसकी आयु-स्थिति का प्रमाण है। सो समयतें लगाय घड़ो, पहर, दिन, वर्ष, पल्य, सागर सो ही बताये है। तहां जघन्य युगता असंख्यात समय जाय, तब एक आँवली कहिये और असंख्यात ऑवली काल व्यतीत भये, तब एक श्वासोच्छ्वास काल होय है। ऐसे श्वासोच्छवासन ते संसारो जीवन की स्थिति है। सोरा संसारी जीव इस शरीर में इतने श्वासोच्छवास रहेगा। सो काय का आयु-कर्म जानना। सो यह पर्यायधारी संसारी जोय, जब अपनी स्थिति प्रमाण श्वासोच्छवास भोग चुके हैं, तब मरजाद पूर्ण होते, आत्मा पुद्रलोक शरीर के संग कू तजे है। ताका नाम व्यवहार नय करि लौकिक में मरना कहैं हैं। ऐसे रा जन्म-मरण, इन जगवासी तनधारनहारे जीवन कुं सदैव लगा है। नाना प्रकार भोगन के भोगनहारे, अनेक ऋद्धि के धारो, सागरों पर्यन्त जीवनहारे, रोसे जो देव हैं तथा नाना प्रकार दुःख-सुख करि मिश्रित जीवनहारे, जो मनुष्य पर्यायधारी। अनेक मन-अगोचर दीरघ-दुःस्वन का सागर ऐसी नरक गति है। अल्प-सुख, दीरघ-दुःख का स्थान तिर्यश्च गति है। ऐसे चारि गति के जीव समुच्चय अनन्त हैं। सो र जन्म-मरण के दुःख से भाग कर कहां जांय ? सर्व, जायगा काल मार है। तातै ए सर्व च्यारि गति वासो जीवन के तन आकार हैं, सो सर्व काल के ग्रास हैं। भावार्थ-कोई जीव कू अब, कोई कूवारि दिन पीछे,
काल सर्व कं खायगा। बचवे का कोई उपाय नाहीं। केवल एक धर्म शरण है और नाहीं। तातै विवेकी जन ३५७
जन्म-मरण के दुःखन तैं डर-चा होय ते भठ्यात्मा, धर्म का सेवन करि, सिद्ध में चालो। ए पुद्गलोक तन छोड़ि, अमर्तिक पद धारो। तहां सदैव सुखी रहोगे। वहां काल का आगमन नाहीं। यहां के शुद्ध अमूर्तिक आत्मा,