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उपचार नाही । हरिसुर कम्पय दोश लख होई कहिये, इन्द्रदेव भी उसे देख, दोन होय कम्पायमान होय । भावार्थ-इस संसार में अनेक वेदना-दुःख का इलाज है । परन्तु काल का यतन नाहीं। सोही बताइये है। बड़ा रोग भूख है, ताका इलाज तो अन्न का भोजन है। ताकरि क्षुधा रोग उपशान्त हो जाय है और तृषा रोग को ओषषि जल है । सो तृषा, जल तें उपशान्त हो जाय है और कुष्ट रोग, वायु, पित्त, ज्वर, क्षय, खांसी, स्वांस इत्यादिक रोगन के जतन क अनेक ओषधि कही हैं। तिन करि रोग उपशान्त होय है। परन्तु एक काल रोग का उपचार नाहीं। ए काल कोई भी जतन से मिटता नाहीं। इन्द्र, देवादि ऐसे भी, काल का आगमन देखि, कम्पायमान होंय हैं। ताका नाम सुनतें, बड़े-बड़े योधा दीनता कंधारे हैं। ताते हे भव्य ! इस काल तें बड़े-बड़े नहीं बचे, तीन लोक में कोई ऐसा स्थान नाही. जहां काल तें बचे । सर्व स्थानकन में जहाँ जाय, तहां मारे। तातं हे धरमो! तुकाल त बच्या चाहै है तो मोक्ष के पहुँचने का उपाय करि। तात तन का धरनामरना सहज ही मिटै। मोक्ष में काल नाहों और मोक्ष बिना सर्व लोक स्थान में, सर्व संसारी तनधारी जोव, काल
का भोजन है। आगे इष्ट-वियोग कहां है, कहां नाहीं है। ऐसा बतावे हैं• गाथा-इठ व्योगा गठ जोगा, इठजोगा गठ क्योग कव होई । ये भवचर ववहारक, सिद्धो विवरीय रहइ इण संगो ॥१०॥
अर्थ-इठ व्योगा गठ जोगा कहिये, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग। इठ जोगा गठ वयोग कव होई कहिये, कबहुं इष्ट का संयोग, अनिष्ट का वियोग। ए भवचर ववहारऊ कहिये, रा संसारी जीवन का व्यवहार ही है। सिद्धो विवरीय रहई इस संगो कहिये, सिद्ध इन सर्व ते विपरीत-रहित हैं। भावार्थ-जे संसारो तनधारी जीव हैं। तिनकौं कबहुं इष्ट का वियोग, कबहुं अनिष्ट का संयोग होय है। तिन करि आत्मा दुःखी होय, विकल्पआरति करि पाप का ही बन्ध करे है। कबहूँ इष्ट का संयोग होय है, अनिष्ट का वियोग होय है ! तब जीव पुण्य के उदय में हर्ष मान है। सो ऐसा दुःख-सुख संसारी जीवों का व्यवहार हो जानना और ए कहे इट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादिक दुःख-सुख सो सिद्धन में नाहीं। सिद्धन कों इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादिक के कारण । नाहां। तातै कारण के अभाव ते संसारी सुख-दुःख भी नाहीं। तातै सिद्ध भगवान् सदा सुखी जानना। आगे ॥ काल जागे कोऊ शरस नाही, एक धर्म शरण है। ऐसा बतावे हैं
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