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दरिद्रो शुभाशन विचार रहित बिना समम ही हठग्राही रोसा कहता भया। हमारे बड़े बड़े आगे त यही धर्म सेवते आये हैं और हमारे धर्म में ऐसे ही देव धर्म-गुरु होय हैं। आगे ते हमारे कुल में ऐसा ही धर्म सेवते आये हैं, सो हम भी सेवन करें हैं। ऐसा कहि के हठग्राहो कुल धर्म-पाप पंथ नहीं तजै, सो धर्म-मूढ़ता कहिए।३। मन-मूदता ।
३३२ ताकों कहिए, जाका मन सदा ही चञ्चल रहै । थिरी नाही होय। महालोम करि मोहित होय। जाका मन सदेव । ऐसा विचार करें जो मोकों धना धन कैसे मिले ? कोई देवता की सेवा करौं तो मोकों मांगै सो देवे सो अवार के समय ता शीतला प्रत्यक्ष देखिर है ।साको पूजही वन मिल। सो संसा विचार कर धन का लोभी अनेक देवन की पूजा कर तथा ऐसा विचारै जो हमैं पड्या, गिर या माल मिल जाय तो भला है ताके निमित्त धरती के गड़े पाखान उपाड़ि-उपाडि धन देखता फिरै। ऐसी अवस्था सहित र अज्ञानी धर्म-पन्थ का मूल्या प्राणी सदैव मन को मुर्खता नहीं तजै । ऐसे भरम बुद्धि कू कहिए जो तू मन की थिरता राख । कुदेगदिक मति पूजो इससे पाप होयगा । धन मिलेगा नाहीं। तो ताकी सुनि अज्ञानी कहता भया। जो पाप कैसे हो है ? यह देव है, राजो भये धन देना इनके सुगम है। अनेकन को वांच्छित देय है। ऐसा जानि अपने मन विष कुदेव, कुधर्म, कुगुरु इनके प्रजिवै की मुर्खता नाहीं छोड़ें। सदैव मनक आर्त्त-रौद्र रूप राखै, सो मन-मढ़ता कहिए 18 जाकी काय ते शुद्ध देव, धर्म, गुरु की सेवा नाहीं बने। विनय भक्ति तिनको नहीं बनें कुदेवादिक को नमनता याने बहुत करी होय और वाहो तें जाका शरीर महाभयानक होय। नेत्र करता लिए लाल होंय। तन पै भस्मी, शिरपै सिन्दूर की बिन्दी होय और कण्ठ शोश भुजा में अनेक ताबीज होय। अरु हस्त में अनेक लोह ताके चूड़ा होय । ऐसे धर्म ध्यान रहित शान्ति मुद्रा सौम्य भाव रहित होय। महाभयानक विपरीत तन का धारी तामैं धर्म मानता होय । ताकौं कोई कहै, तोकों धर्म का फल चाहिए है तौ शान्ति मुद्रा राखौ। भयानक आकार रहना तजौ। तौ ताक। सुनि मूढ़-आत्मा रौसी कही। जो हम अन्तरङ्ग में तो शान्त हो है। बाह्य लोक दिखावै • अपना-आप छिपाय
रहवैकं बाह्य भयानक स्वांग राखें । रोसो नय-जुगति देव । परन्तु काय की करता नहीं तजै । सो तन-मढ़ता ३२ कहिए तथा शरीर की चाल मदोन्मत्त ईर्या समिति रहित होय और जीव ताकौ देखि भय खाय दुखी होते
होय । बिना प्रयोजन अपने हाथ पांवननै जीवनकौं दुख देता होय। रोसा विकट काय का धारी दया रहित