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जगह मुनीश्वर नहीं रहैं। अरु रहें तो अपना संयम नष्ट होय, ऐसा बताई हैंगाथा-जहि मुणि थति यह भूपो, जीरो तण धाण अलप तंह होई । गह धम्मी जण धम्मो, स पुर देसोय तज्जये जोई ॥९७॥ | ३४१
अर्थ-जहिं मुरिंग थति यह भपो कहिः, वहीं मुनिकी नियहि नाही महा १.५.न होयनीरो तग धास अलय तह होई कहिये, जल-घास-अत्र जहाँ थोरा होय। शह पम्मी जण धम्मो कहिये, धर्मो जन अरु धर्म जहाँ नहीं होय। सो पुर देसोय तजरा जोई कहिथे, सो पुर-देश योगोश्वर तजे हैं। भावार्थ-इतनी जगह मुनीश्वर नहीं रहैं । एक तो जा देश मैं तथा पुर में आगे मुनि का वास नहीं होय । जा देश-पुर के वन में मुनि रहते होय, तहां रहैं तथा मुनि स्थिति करने योग्य जो स्थान नहीं होय, तो ता क्षेत्र में योगीश्वर नहीं रहैं । रहैं तो संथम जाय और जा देश-नगर का कोई राजा नहीं होय, तौ ता क्षेत्र में मुनीश्वर नाहीं रहैं। क्योंकि राजा रहित क्षेत्रन में प्रजा दुःखो होय है। जीवन की दशा अन्यायी होय, जीव तहां अनाचारी होंय, निर्दयी होय इत्यादिक अनेक विपरीतता होय । सो यति का धर्म तहां सधै नाहीं। न्याय राज्य बिना दुष्ट प्राणी, दीर्घ शक्ति के धारी होय, सो दीन जीवन कुं पीड़ा देंय । सो दोन जीवनकू दुःख होता देखि. दया-भरडार का हदय कोमल, सो प्रशक्तिमानों का दुःख देखा जाता नाहीं। राजा होय तो हीन-शक्ति के धारी जीवनक, बड़ी शक्ति का धारी पीड़ित नहीं करि सके और कदाचित् दीनकौं शक्तिमान् सतावै-दुःस्व देंय तौ राजा दण्ड देय और राजा नहीं होय तो प्रजा दुःखी होय । सो प्रजा का खेद दया-सागर देखि, दुःखी-चित्त होय। तातें राज्य रहित क्षेत्र विक् यतीश्वर नाहीं रहैं और जिस देश में नदी, सरोवर, कूप, बावड़ीन का नोर कठिनतातं मिलता होय । तहां यतीश्वर का धर्म पल नाहीं। ऐसे क्षेत्र में नाहीं रहैं और जहाँ तिर्यश्चन के तन का आधार जो तिस, सो घास की बाहुल्यता होय तो पश साता पाठे, सुखी रहैं और जहां घास की उत्पत्ति अल्प होय ताकरि घास के खानेहारे तिर्यञ्च पीड़ा पावै। ऐसे क्षेत्रन में करुणासागर नहीं रहैं और जिस क्षेत्र में अन्न की उत्पत्ति थोरो होय, तहां के जीव सदैव अन्न की चिन्ता सहित रहते होंथ । तो ऐसे क्षेत्र में मुनीश्वर का धर्म, निराबाधा नहीं सधै। ताते ऐसे क्षेत्र में दया-भण्डार जगत्-गुरु यतीश्वर नहीं रहैं। जिस देश-पुर विर्षे सुआचारी धर्मात्मा जीव नहीं रहते होय, तो यति के भोजन का अभाव होय । पापाचारी, अभक्ष्य के स्नेहारे।