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उपजावना अच्छा है। वचन पाय हित मित सत्य बोलना और भी इन आदि सुकार्यन में विर्षे शुभ रूप रह के, भव सफल करना योग्य है। रोसा जानना । आगे ऐते निमित्त, काल-मृत्यु समान जानि तिनमें सावधान रहना। ऐसा बताएँ हैंगाथा-दुठणारो सठ मित्तऊ, गूढ जाणन्त मला जे भत्तो । अहर्षित घर विसपाणो, एसहु णमत्ताय द्वार जम्म गेयो ॥ १६ ॥
अर्थ-दठणारी कहिये, दुष्ट स्त्री। सठ मित्तऊ कहिये, मुर्ख मित्र। मढ़ जायन्त मन्त जे भत्तो कहिये, गढ़ बातकौं जो सेवक जानता होय । अहथित घर कहिये, घर में सर्प का वास। विषपाणो कहिये, विष का भोजन । ए सहु णमत्ताय कहिये, ए सब निमित्त । द्वार जम्म गैयो कहिये, काल समानि जानना। भावार्थ-इस जीव के जब पाप-कर्म का उदय आवै तब ऐसा निमित्त मिले। जो घर विर्षे महादुष्ट स्वभाववाली कलहकारिणी, विनय लज्जारहित तीक्ष्ण-कटुक वचन भाषरणी क्रोधादि कषायन सहित, कामाग्नि जिसके तीव्र होय । इनकं आदि लेकर अनेक अनाचा गौमा रिभरी स्त्री गित : नोमश समान हह सदैव जानना तथा जाप तो महाविवेकी होय नाना नय-जुगति का जाननेहारा होय। चतुर, अनेक कला का धारी धर्म-कर्म कार्य में प्रवीण होय और जिनमें सदैव रहना ऐसे मित्र जो आपके पास निरन्तर रहैं, सो मुर्ख होय। तो आप तो विचार कछु भला-कार्य अरु मुर्ख मित्र ज्ञान हीन वह विचारै निन्द्य-कार्य । अरु समझते नाही, कहिये कछु अरु वह मन्दज्ञानी कर काछ । सो ऐसे मूर्स के निमित्त तै विवेको कौं मरण समान निमित्त है और कोई अपनी गढ़ वार्ता है जो काहूको कहने की नाहीं। उस बात कोई जानै, तो आपकू दुःख होय और राज-पञ्च कदाचित् सुनि पावै तौ दण्ड देय । ऐसी वार्ता गढ़ थी सो पहिले कोई चाकर कं अपना मित्र जानि कही होय। तो वह चाकर मित्र काल पाय जिनका प्रयोजन नहीं सधै, द्वेष रूप होय । तब एही मित्र काल समानि हैं तात विवेकी होय सो स्नेह के वश सेवकको तथा मित्रको अपने घर की छिपी गुढ़ वार्ता नहीं जनावें हैं। जनावें तो कबहंकाल समानि दुःखदाता जानना। जा घर विर्षे सर्प होय ताही घर विर्षे निशदिन रहना होय। तौ क न क मरण होय। तातै विवेकी जा घर मैं सर्प होय तही नहीं रहै और हलाहल विष का खावना। सो मरण का कारण है। इत्यादिक कहे जे खोटे निमित्त, सो कबहू न कबहूं मरण करें। तातं विवेकीन का इतनी जगह सावधानी से जीतव्य जानता। आगे रती
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