________________
मुद्रा का धारी शरीरको उद्धत राखता होय । सो काय-मुढ़ता कहिए । जहाँ जिन-आज्ञा रहित पापकारी पर-जीवनक भयकारी, झोककारी वचन बोलना । अपनी इच्छा प्रमाण स्वेच्छाचारी वचन पापकारी बोलना।। सो वचन-मूढ़ता है। याकौँ कोई कहे तुम ऐसे कषाय वचन मत कहो तथा देवकू गाली, गुरुकू गाली तथा गृहस्थनों गाली. कठिन ऐसे अयोग्य वचन मति कहो। तो वह मुर्ख कहै, हम इसी तरह देव की स्तुति करें हैं । गृहस्थीन को ऐसे ही दबाय देय हैं। ऐसे कहै; परन्तु क्रोधादि-कषाय पोषवे के पापकारी-वचन नहीं तजे। सो वचन-मूढ़ता है। जा वचन तें पराया तन क्षय होय । धन क्षयकारी, मान जयकारी ऐसे बिना विचारे वचन का बोलना जाकै सुनें सर्व सभा-जन दुःख पार्दै सो वचन-मूढ़ता है तथा जा वचनको सुनि सब कुटुम्ब दुस्ख पावे सो कुटुम्ब-विरुद्ध कहिए। ऐसे वचन तथा राज्य-समा विरुद्ध वचन जाके सुनै राज-सभा दुस्स पावै । इत्यादि वचन का बोलना, सो वचन-मूढ़ता है। ६ । व्यवहार-मूढ़ ताकौं कहिये। जहां अयोग्यहिंसाकारी व्यापारकू ऐसा मानना, जो ये किसब हमारे आगे नै चल्या आया है। हमारे बड़े, पोढ़ियों ते यही किसब करते आये हैं। सो बुरा है तो भला है । अरु मला है तो भला है। कुल का किसब कैसे छोड़ें? ऐसा जानि, महाहठग्राही, पापकारी-हिंसामयी किसब नहीं तजें 1 सो व्यवहार-मूढ़ता है।७। रौसी कही जे सात जाति की मूढ़ता, ताकौं अपनी-अपनी हठ बुद्धिकार, यथायोग्य विपरीत भावना सहित धारि, अङ्गीकार करना। ऐसे श्रद्धान का धारण जिनके होय, सो मिथ्यादृष्टि जानना । इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में जाति-व्यवहारादि का कथन करनेवाला चौबीसा पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥२४॥
आगे हितोपदेश दिखाइये है। तहां मिटयाज्ञान अरु सम्यग्ज्ञान के प्रकाशकौं दृष्टान्त करि दिखाइये है| गाथा-उपल वहणि मिछिणांणो, कय उदोम फुणस्याम उर जायो। हाटक सम सम्पायो,तब वहगी जुइ विमल तण होई ॥९॥
अर्थ-उपल वहणि मिछिराणो कहिये, काष्ठ-छारोको अग्नि समान मिथ्याज्ञान है सो! कय उदीय फुणस्याम उर जायो कहिये, उद्योत करि फेरि श्याम शरीर को धरै है। हाटक सम सम्यगांगो कहिये, सम्यग्ज्ञान स्वर्ग समानि है। तव वहणी जुइ विमल तण होई कहिये, तप रूपी अग्नितें विशेष प्रभा धरै है। भावार्थ-आत्म स्वभाव अरु पर-जड़भाव इनके जुदे-जुदे जानवैकौं, अनुभवन करवैकौं अताव श्रद्धानी मिथ्यादृष्टि का ज्ञान