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सो धर्म को छांडि धर्म-काल में पाप का सेवन करै हैं । ते दुःखी ही होय हैं और धर्मात्मा गृहस्थन कौं इन्द्रिय-सुख भोगते पाप होता नाहीं और मोक्ष सूख, अविनाशी-अतीन्द्रिय-भोग सख, मोक्ष बिना होता नहीं । तात जे मोक्ष-सूख के वच्छिक होय, ते तो दीक्षा ही धारें हैं और जिन भव्यन कं मोक्ष वांच्छा तौ है, पर दीक्षा धरवे क समथं नाही। ऐसे धर्मात्मा गृहस्थ हैं, सो घर ही विर्षे मुनि का दान, जिन देव की पूजा, शाखन का श्रवण-पठन, संयम, शक्ति प्रमाण तप इत्यादिक धर्म का सेवन कर ताके फल देव-पद, भोग ममि फल, चक्री-पद इत्यादिक पावें। सो इन देवादिक पदन में निशदिन अद्भुत इन्द्रियजनित सुख-भोग, आयु पर्यन्त भोगवे हैं। तातें हे भव्यात्या ! इन्द्रियजनित सुख तैं पाप होता, दुर्गति होती तो गृहस्थ-धर्मात्मा का पर-भव कैसे सुधरता ? अरु धर्मो-श्रावक धर्म-रस के स्वादो, घर के सुख कैसे भोगते? तात अनेक नयन करि विचारिये है तौ पाप एक धर्म-घात का नाम है। भोगन में पाप नाहों। तातै विवेकी धर्मात्मा हैं तिनको शक धर्म-काल में धर्म-सेवन ही योग्य है। आगे मुनीश्वरों के मोक्ष कौ कारण, श्रावक का घर है। ऐसा कहै हैंगाथा--जीम सुहचय मोक्सो, मोक्खोत्तयण रयण मुण साहो । मुणगर तण आहारो, भोयण सावय गेह कर होई ॥ ९४ ।।
अर्थ--जोय सुह चय मोक्खो कहिये, जीव सुखकौं चाहै सो सुख मोक्ष विई है। मौक्वोत्तयण रयरा मुरा साहो कहिये, सो मोक्ष रत्नत्रय से होय है अरु रत्नत्रय मुनि-पद ते होय है। मुराणरतरा जाहारो कहिये, मुनि-पद मनुष्य शरीर तें होय है अरु शरीर भोजन तै रहै है। भोयरा सावय गेहकर होई कहिये, सो भोजन श्रावक के घर करि होय है। भावार्थ-ये सर्व च्यारि गति संसारो जीवन की आशा, एक सुख है। सो सुख सर्व चाहैं हैं। अरु आया सुख का वियोग मये, जीव दुःखी होय है। तातें ऐसा जानिये है। कि विनाश रहित अविनाशी सुस कौं जीव चाहैं हैं। सुनतें एक छिनक भी अन्तर नहीं चाहैं हैं, रौसा सर्व जीवन का अभिप्राय है। सो हे भव्य जीव हो! संसार में देव-मनुष्यन के सुख हैं। सो तो विनाशिक हैं। कोई पुण्य जोगते होय हैं। पीछे अपनी स्थिति-मरजाद पूर्ण भये पर्यन्त रहैं हैं। पूर्ण भरा पीछे सुख नाश होय है। सुख नाश भये, बड़ा दुःस्वी होय है। जैसे विद्युत पात, अल्प उद्योत का चमत्कार करि, पीछे अन्धकार करै है। तैसे ही इन्द्रिय-सुख तो तुच्छ-सा चमत्कार, सुख की वासना-सी बताय, पीछे दुःख ही उपजावै है । सातै रैसा विनाशिक सुन्न होने से न होना मला
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