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विवेकी पुरुष हैं तिनक, मिथ्याज्ञान तजि कैं, मोक्ष का करमहारा, सिद्ध पद का देनेहारा, कमन का नाश
करनहारा, रोसा सम्यग्ज्ञान जैसे नारे तैसे प्रापमा घोग्य 7: भाग लिग सुख ते जात्मा तृप्त नहीं श्री। मया, सो ही दिखाइये हैगाथा-हरि हल सुर सग चको, पुण फल सुह भुजेय ण धपे । तब लब सुह पर आदा, धपो कि धम्मसेय सिब कज्जे ॥१०॥
अर्थ-हरि कहिये, नारायण । हल कहिये, बलभद्र। सुर कहिये, देव । खग कहिये, विद्याधर । चक्री कहिये, षटुखण्डी चक्री। पुरा फल सुह मुंजेय स धपे कहिये, पुण्य का फल सुख भोग्या, तो भी नहीं हप्त हुा । तब लव सुह सर आदा कहिये, तो है आत्मा ! मनुष्यन के अल्प सूख तें । धपो किं कहिये, कैसे तृप्त होयगा ? धम्मसेय सिव कज्जे कहिये, तातै धर्म का सेवन मोक्ष के निमित्त करौ । भावार्थ-ये जीव खण्ड का स्वामी सोलह हजार स्त्रीन के सङ्ग भोग-भोगनहारा भया । तहाँ भोगन ते तृप्त नहीं भया तथा हरि कहिए जो देवनाथ इन्द्र सो ताने अनेक देवाङ्गना सहित अनेक वांच्छित भोग भोगे, तो भी तृप्त नहीं भया तथा अनेक देवीन सहित सुख भोगनहारे देवपद के अनेक सुख भोगे: परन्तु तृप्त नहीं मया । अनेक गीत, नृत्य, वादिनादि के अद्भुत लक्ष्मी सहित कौतूहल करि अनुपम भीग में रम्या तहाँ भी ये आत्मा तृप्त नहीं भया तथा और भी देव समानि सम्पदा के धारी ऐसे विद्याधर तिनके सुख भोगनहारे अनेक प्रकार अढ़ाई द्वीप में स्वेच्छा फिरि क्रीड़ा करते दीर्घ सुख भोगे तो भी जात्मा विद्याधरन के सुख तें भी तृप्त नहीं भया और षट् खण्ड का पति छचानवे हजार देवाङ्गना समानि रूप गुण की धरनहारी स्त्री तिन सहित मनवांच्छित देवेन्द्र की नाई सुख समूह दीर्घ-काल ताई नये-नये भोगे तो भी आत्मा तृप्त नहीं मया और भी अनेक मतोल वांच्छित अद्भुत सुख भोगे। संसार में कोई ऐसा सुख नाही बच्या जो आत्मा ने अनेक बार पुण्य के उदय तें न भोग्या सर्व भोग्या । चिरकाल ताई भोगन में ही रजायमान रहा। सो हे भव्यात्मा! तुच्छ पुण्य तुच्छ पुरुषार्थ अल्प स्थिति सहित महाचपल मनुष्य के सुख तिन मैं तू कैसे तृप्त होयगा ? ताते हे निकट संसारी! समता भाव धरि भोगन ते उदास होऊ या मनुष्य पर्याय की अल्प स्थिति और रही है। ता मैं अब सोकं मोक्ष होयेक धर्म का हो साधन करना योग्य है । फेरि ऐसा अवसर कठिन है और हे सूबुद्धि! इन्द्रियन के सुख तौ