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धर्म की प्रवृत्ति
न होय? तिस स्थान कौं म्लेच्छ कहिए। सो ता स्थान के षट् भेद हैं। मन म्लेच्छ, तन म्लेच्छ, घर म्लेच्छ, पुर म्लेच्छ, देश म्लेच्छ और खंड म्लेच्छए छः भेद हैं। सो ही अर्थ सहित बताइए है, जहाँ जाके मन में शुभ आचार नहीं होय । सुधर्म की जाके मन में प्रवृत्ति नहीं होय । सो मन म्लेच्छ समान है या मन कहिए और का शरीर तं सुआचार अरु धर्म सेवन नहीं बनें। सो तन म्लेच्छ समान है । याका नाम तन म्लेच्छ है और जाके घर में सुश्राचार सहित धर्म नाहीं । सो घर म्लेच्छ समानि है । याका नाम, घर म्लेच्छ है और जा पर विषै सुप्रचार अरु धर्म प्रवृत्ति नहीं होय। सो वह पुर म्लेच्छ के पुर समानि है । याका नाम, पुर म्लेच्छ है और जा देश में शुभ आचार सहित धर्म-प्रवृत्ति नहीं। सो देश म्लेच्छन के देश समान है । याका नाम देश म्लेच्छ है और जा खंड में शुभाचार सहित धर्म नहीं । सो खंड- म्लेच्छ है। ऐसे म्लेच्छपने के षट् भेद कहे। सो इनमें जहां-जहां धर्म-प्रवृत्ति नाहीं, सो म्लेच्छ जानना। इनकों सुधर्म का उपदेश शुभ लागता नाहीं । धर्म में रुचि होती नाहीं । ए कुआचारी, अभक्ष्य भक्षणहारे हैं। सो कुगतिगामी जानना
आगे मूढ़ता के सात भेद बतावें हैं
गाया जाय लोय धम्म मूढ्य मूढो मण काय चयण विवहारो । जयारीय विपरीयों मिच्छाइट्रीय होय सम जीवो ॥ ८८ ॥ अर्थ - जा कहिये, जाति मूढ़। लोय कहिये, लोक मूढ धम्म मूख्य कहिये, धर्म मूढ़। मूढ़ो मरा कहिये, मन मूढ़ | काय कहिये, तन मूढ़ वयण कहिये, वचन मूढ़ । विवहारो कहिये, व्यवहार मुद्र। जथारीय विपरीयो कहिये, इन आदि यथायोग्य विपरीत क्रिया के धारी मिच्छा इट्टीय होय सय जीवो कहिये, ए सब जीव मिथ्यादृष्टि जानना । भावार्थ - मूढ़ता नाम मूरखता का है। जो भली-बुरी के भेद को नहीं जाने। योग्य-अयोग्य खाद्यअखाद्य के भेद रहित हग्राही होय तार्कों मूढ़ कहिए। तहां कोई पाप क्रिया पर-भव दुखकरराहारी कोई जीव करै था । ताक देख काहू धर्मात्मा ने दया भाव करि मनै किया। कही हे भव्य ! ए कार्य पर-भव दुख देनेहारा है। तू ं मति कर दुखी होयगा। ऐसी कही। तार्कों सुनि वह मूढ अज्ञानी कहता मया । भाई! ए क्रिया तो हमारी जाति में करनी कही है। निन्द्य नाहीं। जो बुरी होती तो हमारे बड़े जाति में काहे कौं करते ? तातें जो अपने बड़े आगे सू करते आये जाति में सब करें ताकौं कैसे तजैं ? ऐसा हठी महाढीठ कठोर परिणामी पाय
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