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जगत गुरु, दया-भण्डार नगन तन धारी वीतरागी, समता समुद्र के वासी गुरुनक दान दीजिये, तब निःशंक होय दीजिये । तब उत्कृष्ट पुण्य फल होय। ऐसे मुनीश्वर की कोई मिथ्यादृष्टि भक्ति-भाव त दान देय तो ३२५ ये उत्कृष्ट भोग भूमि में तीन पल्य की आयु सहित तीन कोस के तन सहित उत्तम मनुष्य होय और जो सम्यग्दृष्टि ऐसे गुरुकों दान देय तौ कल्पवासी-देव होय । तातें मुनि के दान में लज्जा नहीं करनी 121 और प्रत्याख्यान जो कोई वस्तु का त्याग करना तथा कोई नियम-आखड़ी करनी होय तो निःशंक होय करिये। सर्व में प्रगट कर दीजै थामैं लज्जा नहीं करिये । लजा करै तो त्याग का अभाव होय तथा कारण पाय नियम । भङ्ग होय । तातें निःशेष होय त्याग प्रम करने में जानहीं करिये और लज्जा सहित ध्यान करे, तो चित्त स्थिरोभत नहीं रहे । फल होन होय तातें निःशंक होय ध्यान करै तौ उत्कृष्ट फल होय । यातें ध्यान में लज्जा नहीं करिये ।। और अपने किये पापन कौं यादि करि आलोचना करते लज्जा नहीं करिये। कदाचित् ऐसा विचारै, जो मैं ऐसा बड़ा आदमी होय अपनी निन्दा कैसे करौं ? तो पाप कटे नाहीं । तातै निःशंक होय अपनो जमानता प्रमाद बुद्धि की बारम्बार आलोचना किये पाप का नाश होय। ऐसा जानि आलोचना करते लज्जा नहीं करनी। ५। और गुरु के पासि जाय अपने दोश प्रकाशिये-कहिये, तो दोष जाय और गुरु पै अपने दोष प्रकाश से लज्जा करे तो दोष नाहीं जाय । जैसे-सवैद्य के पास रोगी अपना रोग प्रकाशते लज्जा करै भय कर तो रोग नहीं जाय अाय दुखी रहै । वैद्य रोग प्रगट करै, तो वैद्य औषध देय सुखी करै । तातै निःशंक होय गुरु पै अपना दोष कहिये, लज्जा नहीं करिये, तौ दोष जाय ६ रीसे कहे ऊपर षट् स्थान, तिनमें लण्णा नाहीं करिये। ऐसा जानना। आगे साहस ते सर्व संकट मिट है, ऐसा कहैं हैंगाथा-रोगे रण संणासे सङ्कट भरणेय माण तब धम्मे। दालदयेजल गहणं साहसे सफलं होय सह धारा ॥४॥
अर्थ-रोग में, रण में, सन्यास समय में, अनेक संकटन में, मरण समय-ध्यान समय तप में, धर्म-सेवन में, | दारिद्रय में, दीर्घ जल के तिरने में-इन सर्व जगह में, साहस तें सब कार्य सफल हो हैं। भावार्थ-पाय-कर्म
के उदय करि आर नाना प्रकार वात, पित्त, ज्वर, कफ, खांसी, स्वासादिक अनेक रोग तिनकरि बधो जो वेदना सो काहू तें मिटती नाहीं। रोये-चिन्ता किए, धर्म खोवना है। सुखदाता नाहीं। तातै विवेकी है ते ऐसा
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