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प्यारा लागे है। सो जहाँ प्रथमानुयोग,करणानुयोग, द्रव्यानुयोगको कथा पाप हरनी,पुरुष करनी बात होतो होय सो स्थान धर्मात्माकं मला लागै तथा जहां अनेक मतान्तर की रहसिकं लिये तत्त्व भेदन का निर्धार होता होय जिनतें ! मोक्ष-मार्गजाया जाय संसार भ्रमरा छूटे परभव सुख होय लागे पाप नाश होय इत्यादिक ऊँच-स्थानक रखायमान होय सो ज्ञानी कहिए। ऐसे कहे जे सुसंग हंस चतुर नर ज्ञानी पुरुष इनकी ऊँच संग प्रिय लागे है। इनका ये ही सहज स्वभाव है। सो हे भव्य हो! जे नीच हूँ तिनकौं नीच संग प्रिय है। ऊँचनकों ऊँच संग प्रिय है। ऐसी परीक्षा करि नीच-ऊँच की पहिचान करना। जिसमें तेरे चले को होय तिस संगति मैं रचना मगन होना योग्य है।६६। आगे हितून के परखिनेक नव स्थान दृष्टान्तपूर्वक बतावें हैंगाथा-णिपभय खेद दरिदये, भोयण सतयार अजपणामो जराशक्ति अस्वभहीयो इथल हित हेम पास कसटीये ॥ ७॥
अर्थ-शिपमय कहिये, राजा का भय। खेद कहिये, रोग। दरिदये कहिये, दारिद्रच। भौयण कहिये, भोजन। सतयार कहिये, सत्कार। अजपरणामो कहिये, आरजी परिणाम । जरा कहिये, वृद्धपना। आसक्ति कहिये, हीन शक्ति। अवझहीयो कहिये, इन्द्रियन के बल घट। इथल हित हेम पाख कसटीये कहिये, ए स्थान हिन रुपी कनक के परखवे की कसौटी हैं। भावार्थ---संसार में अपने हितकारी जीव तेई भए स्वर्ण तिनके परखदेकौं श कहे स्थान सो कसौटी समानि हैं। सोई बताइए हैं। जहां एक तो भूप भय होवे। तब राजा का कोप अपने ऊपरि होय तब अपनी सहायक अपनी चाकरी करे। सो भला चाकर जानना।जे ऐसे समयमैं पासि. रहै, विनय करै, सेवा करै, सो सांचा चाकर है। अरु कुटुम्बादि, मन्त्री, जे भूप के कोप में सहाय करें सो सांचा हितू जानना।३। नाना प्रकार तन विर्षे कुशदि रोग को वेदना भई होय। ता समय मल-मूत्रादि को समेटणा करै सो ही भला सेवक सो ही कुटुम्ब सो ही मित्रादि जानना।२। जब पाप उदय ते दरिद्र आवे धन की हीनता होय। ता समय में भख-प्यास सहकै जो सेवा करे सो भला सेवक कहिए। जो इस दरिद्र दशा में संग रहै विनय तें पूर्ववत् रहै सोही कुटुम्ब सो ही मित्रादिक जानना।३। भोजन देते यथायोग्य बादरत विनय सहित अन्तरंग के स्नेह भोजन देव सो सांचा हित सोही कुटुम्ब सोही मित्र सांचा है। सोही सेवक भला है।