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इत्यादिक याका लाड़ चाहै जैसा करो। परन्तु जब या काक हाथ-पिंजरे तें छूटे, तब ही ये अज्ञानी, नीच जहां स्थान होगा तहां हो जायगा तथा आप समानि काक बैठे होंयगे, तहां जाय तिष्ठेगा और कुत्तेकूं, चाहे जैसा भला-भोजन करावौ । अनेक भले आभूषण याके तन में पहरावो। पालको व रथ की असवारी में धरो । नाना बिछौना, गादी, जाजमै पैराखो। इत्यादिक अनेक भले निमित्त मिलाय के राखौ। परन्तु जब यह डोर तैं छूटेगा, तब ग्राम-श्वानन विषै जाय रमने लगेगा तथा घूरा वै जाय तिष्ठेगा। ऐसा ही याका सहज स्वभाव है और अज्ञानी को चाहे जेता समझावो-पढ़ावो, परन्तु थाकी अज्ञानता नाहीं जाय । याका सहज स्वभाव ऐसा ही जानना । सो अज्ञान, ताके अनेक मंद हैं। तहा एक ज्ञान तो ऐसा है। जो और कला धर्म-कर्म को सब जानें है। अनेक भेद-भाव समझ है। परन्तु शास्त्र-वांचने के ज्ञान से रहित है। कोई पूर्व-कर्म जोगतें श्रुतज्ञानावरण के उदय तैं संस्कृत, प्राकृत, देश-भाषादिक शास्त्रन के वांचने का ज्ञान नाहीं । तातें याकौँ श्रज्ञान कहिये और एक अज्ञान ऐसा है जो ताक शास्त्र वांचने का ज्ञान तौ है । परन्तु योग्य-अयोग्य, भली-बुरी, पुण्य-पाप, हित-अहित इत्यादिक शुभाशुभ विचारतें, हृदय जाका रहित होय । जैसे—तोता को पढ़ाय परिडत किया । सो तोता कौं जैसे- काव्य- छन्द पढ़ावो सो पढ़ें। ताका पढ़ना देखि और जन राजो होंय। ऐसा पढ़ाय तैयार किया। परन्तु थाके मुख आगे अँगुली करो, तो काट खाय तथा पिंजरे तें खोल देव, तो मूरख उड़ जाय । कछू विचारै नाहीं । जो मैं इस रतन पींजरे में भले भोजन-जल खावता सुखी हौं । मोकौं इनने पढ़ाया है। सो ये अज्ञान, सर्व भूलि, पींजरा छोड़ जाता रहे । सो कोई ऐसा ही मूरख, अनेक शास्त्र, संस्कृत, प्राकृतादि तो वाँचि जानें, परन्तु कषाय- सहित, महामानी, पाप का भय नाहीं, पुण्य फल की चाह नाहीं, ऐसा हित-अहित रूप भाव नहीं समझे। काम, क्रोध, लोभ बहुत होय जार्के । सो पढ़या- अज्ञान कहिये | एक शुभाशुभ विचार रहित होय, अरु अक्षर ज्ञान तैं भी रहित होय, तार्कों भी अज्ञान कहिये और एक बालक अज्ञान होय । सो सुख-दुःख के स्थान -भेद नहीं समझे । ज्यों बालक कौं, शके माता-पिता कहैं हैं। पुत्र ! भोजन खायकैं, पालने भूलो सोवो । अरु घाम में मति जाओ, यहाँ शीतल जल पीवो। लड़कों में किए जाते हैं। ता नहीं समझा
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