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पाथा-मखि पतङ्ग दहकाया तसयर चित्तोय णमण तण होई । सुरतरु देवह वाणी, भावो भी बिना ग सौमन्ती ॥ ५ ॥
अर्थ-मखि पतङ्ग दहकाया कहिये, माती व पतङ्ग काया दहे हैं। तसयर कहिये, चोर। चित्तीय कहिये। चीता। रामण तरा होई कहिये, इनके तन मैं बहुत नमन है। सुरतरु देवहु दाणो कहिये, कल्पवृक्ष मनवांच्छित दान देय। भावो सुधी बिना ख सीमन्ती कहिये, परन्तु भाव को शुद्धता बिना मोक्ष-मार्ग नाहीं। भावार्थभावन की शुद्धता बिना मोक्ष नाही होय है। नाना तप, संयमाद के खेद, सर्व वृथा जानना। सो भाव शुद्ध बिना केतेक तौ भोले जीव मोक्ष के निमित अपना भला तन अग्नि में भस्म करें हैं। सो ऐसे अग्नि में जलने के कष्ट त मोक्ष होती तो शुद्ध-भाव बिना माखीव पतङ्ग को होय। मासी व पतङ्ग दीपक में निराश होय, तन को दाहँ हैं। सो अज्ञान संक्लेश भावनत मरि खोटी गति ही विर्षे उपजें हैं। तात शुद्ध-भाव बिना काय का जलावना वृथा है और काय ते अत्यन्त नमैं विनय किये शुद्ध-भाव बिना मोक्ष होती तो चोर परार-घर में चोरीकू जाय तब अपना तन शीश नवावता जाय है। सो यह मायावी, दगादार महासोटे अन्तरङ्ग का धारो ये चोर तथा चौता पशु है सो अन्य जोवनको मार है तब पहले अपनी कायकू बहुत नमाय करि पीछे चोट करे। सो काय नमाएविनय किये शुद्ध-भाव बिना मोक्ष होय तो चोर तथा चीते को होय। तात धर्म अभिलाषो पुरुषनको भाव ही शुद्ध करना स्वर्ग मोक्षकारी है और शुद्ध-भाव बिना दान किए मोक्ष होय तो कल्पवृक्ष को होय जो वांच्छित फल देय है। तातें तस्कर चीता माखी पतङ्ग कल्पवृक्ष ज्ञान रहित हैं। खोटे-भाव सहित हैं। इन पर-भव सुख नाहीं। तातें ऐसा निश्चय करना, कि पर-भव के हित का कारण-भाव की शुद्धता है। सात धर्मार्थी जीवनक भाव की शुद्धता करना योग्य है। आगे सुसंग-कुसंग के बच्छक जीवन बतावे हैंगाथा-दापसरसाण अणाणी, हीण सङ्गीय रजई मूढो । हंस चतुर गर गाणी, ऊँच सङ्गोय वंछिका गेयं ॥ ६९ ॥
अर्थ-वायस कहिये, कौवा । स्सारण कहिये, कुत्ता। अणारणी कहिये, अज्ञानी। हीरा सोय कहिये, नीच सङ्ग विषै। राय मूढ़ो कहिये, मूरख रात्रै हैं। हंस चतुर गर-णाशी, ऊंच सङ्गीय वाञ्छिका गेयं कहिये, हंस | च तुर मनुष्य व ज्ञानी पुरुषन को ऊँच-सङ्ग ही सुहावै। भावार्थ-काक की चाहै जैते ही रतनमयो बाभूषण पहराय के श्रृङ्गारी। चाहे जैसा भोजन देय पोखौ। चाहे जैसा खेद स्वाय, पढ़ायो। कनक के पिंजरे में राखो ।
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