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अपनी इच्छा ते हो. मजूरी करता भया। सो औरन तँ यह पागल बहुत भार उठावें। मजूर उठावें पाँच सेर का पाषाण तो ये पागल उठावै दश पसेरी का पत्थर। मजूर ल्यावै एक पत्थर तो ये पागल ल्याव दश-पत्थर। सो ।। ३०६ याकी मानुनी देश में एखान पुरुषोसा विचारै जो यह मजूरी बहुत करै है। सो याका रोष भी बहुत होयगा। रोसे सब दिन मजुरी करी। सांझ को मजर छुटे। तब जिनके नाम मड़े थे, तिन सब मजरन को दिन मिल्या। सो अपने घर जाय सुनी भये। जब इस पागल ने भी मजूरी मांगी। तब दरोगा ने कागद में याका नाम देख्या, सो नाही निकस्या। तब याक, पंत कब लागा था ? तब यानें कहो-मेरी मन जाई तब ही लागा। तब याको पूंछो तोकौ कोऊ ने लगाया था ? तब या पागल ने कही-हमको कौन लगावै, हम हो अपने मन तं लगे थे। तब सबने जानी, ये मज़र नाहीं, कोई पागल है। तब धक्के दिवाथ कढ़ा दिया। मजरो नहीं मिली, धक्के मिले। सबने जानी, दीवाना है। मिहनत वृथा गई, क्यों गह? सो कहिये है। ये दिवाना काहू का चाकर तो भया नाहीं। अपनी इच्छा रूप रया। बन्ध रूप नाहीं। इस दिवाने करता विचार नाहीं। जो मैं फलाने का चाकर हौं या कहि कर काम करों। जो धनी की आज्ञा मानता नाहीं अपनी इच्छा रूप है ताते मंजूरी नहीं मिली। खेद वृथा गया। तैसे ही यह जीव एक शुद्ध धर्म की परीक्षा करि जाकौं कल्याणकारी जानें, ताकी आज्ञा प्रमाण धर्म का सेवन करें तथा धर्म के अङ्ग-दान, पूजा, तपादिक करें तो धर्म का फल भी लागै और धर्म-स्वांग तो बहुत धारै परन्तु कोई आज्ञा रूप नाही स्वेच्छा स्वच्छन्द होय धर्म अङ्ग का सेवन करे। अनेक कष्ट करै, सो वृथा जाय। जैसे-पागल की मजरी वृथा भई, तैसे जानना। ऐसे धर्म-अङ्ग सेवनहारे जीवन के दोय भेद कहे। सो हे भव्य ! तूं जानि। जो धर्म की आज्ञा सहित धर्म अङ्गन का सेवन करें हैं और निमित्त के दोष त उनके परिणाम चञ्चल भी होंय तो उनका धर्म-फल जाता नाहीं और कोई जीव सर्वज्ञादेव की प्राहा रहित भया; क्रोध, मान, माया, लोम के जोग तैं छल-बलकं लिये पाखण्ड सहित धर्म-सेवन लोक दिखावन कौ करे तिनका फल भी वृथा होय। ऐसे जानना। यह तेरे प्रश्न का उत्तर है। तातै भावन की शुद्धता सहित धर्म-सेवन ही मोक्ष-मार्ग जानि। शुद्ध-माव बिना बैद हो है, सो भी वृथा जानना। आगे और कहैं हैं जो शुद्ध-भाव बिना धर्म-अङ्ग वृथा है---