________________
| करते, शुद्ध-भाव सहित तो कोई दोसता नाहीं। प्रात, रौद्र-ध्यान बहुत के होय है। शुभ-भाववाले, अल्प हैं और | जेते जीव, अवार-धर्म अङ्ग सेवन करें हैं। तिनके शुभ-भाव अल्प भासे है। सो इनको धर्म-सेवन का फल शुभ होयगा वा नहीं होयगा? ता समाधान-भो भव्य ! तूं ने प्रश्न महामनीज्ञ किया। सत्पुरुषन कू सुख पहुँचावनहारा, अनेक जीवन का संशय मेटनेहारा, ऐसे भाव सहित तेरा प्रश्न है सो अब चित्त देय के उत्तर सुन। इस उत्तर का धारण किये धर्म के अङ्गन ते विशेष प्रीति उपजैगो। धर्म के सैवनेहारे जीवन के अभिप्राय के दोय भेद है। राया तो यम फल के हेतु सर्वे हैं। एक लोभी, कषाय के पौषनै , धर्म सेवन करें हैं। सो जे भव्यात्मा, धर्म कं बड़ा जान, धर्म फल का लोभी भया; दान, पूजा, तप, ध्यान, शीलादिक करें हैं। सो पर-भव के कल्याण कू शुभ-भाव लिए करें हैं। पीछे कर्म के जोग ते कारण याय, भाव-चञ्चन भी होय, अरति उपजावें, तो याका शुभ-फल जाता नाहीं। जैसे-कोऊ भव्यात्मा, सामायिक करने के पद्मासन या कायोत्सर्ग काय का प्रासन करि, चित्त मला करि, सामायिक कर है । सो सामायिक कौं बैठा, तब अभिप्राय तो अच्छा था ।अरु मन-वचनकाय की प्रवृत्ति भी अच्छी थी। पीछे कोई कर्म-जोगते राग-भावन की प्रबलता करि, परिणाम और ही विकल्प कषाय रूप होने लगे। मन चञ्चल होय रह्या। परन्तु काय, सामायिक रूप है। परिसति, कर्म को जोरावरो त । याके हाथ नाहीं । अभिप्राय याका ये ही है जो मैं सामायिक करौं हों। सो रीसे धर्मात्मा का सामायिक का फल जाता नहीं। जैसे- कोई सामायिक करनेहारा भव्य जीव, सामाधिक समय, घर के अनेक कार्य तजि कैं, धर्म-बुद्धि का प्रेस्था, घर तें धर्म स्थान में जाय, तन की शुद्धता करि, अल्प परिग्रह राखि, कायोत्सर्ग तथा पद्मासन ध्यान धरि, पञ्चपरमेष्ठी के गुणन का विचार करि, अपने किये पाप याद करि, तिनकी आलोचना बार-बार करि, अपनी निन्दा करि, सर्व जोवन से समता-भाव करि, रीसा विचार करता भया। जो धन्य हैं वै मुनीश्वर तथा उत्तम प्रतिमाधारी श्रावक जो सर्व आरम्भ-पाप ते निवृत्त होय, सुख भोग हैं। ऐसी दशा मोरी कब होवेगी? ऐसे तप की भावना मावता, सामायिक करै। राते ही में एक चिन्ताकारी बात वादि होती भई। कि जो एक हजार दोनार की थैली वा दुकानवाले कू भूलि आया। सो याके याद होते मन तो चञ्चत होय, आरति के जाल मैं पड्या सामायिक मैं चित्त नाही लागें। तब यह धर्मात्मा विचारै, जो मेरे दोय-घरो की मर्यादा है। सामायिक