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महारोगी और असाध्य वेदना के धारी। एक देशान्तरी वैद्य आया सो वाने दोऊ रोगी देखौ । सो उनकी नाड़ी परीक्षा करि, सब शुभाशुभ जानि कही—ये रोगी तो इलाज योग्य है । अरु ये रोगी असाध्य है, याका इलाज नाहीं । तब काहू ने कह्या. जो बाका इलाज काहे तें नाहीं ? तब वैद्य ने कही - एक रोगो का आ-कर्म बड़ा है और एक का आयु-कर्म अल्प है, सो मरेगा । याका जतन नाहीं । याके ऊपर जितने जतन करौ, सब वृथा जांथ, जतन लागें नाहीं । तैसे हो जाका पर-भत्र भला होय, ऐसे सहज का भोलामूर्छा तो उपदेश के योग्य है। याकौं धर्मोपदेश लागे भी है और जिसको पर-भव में बुरी-गति होय, वह जानता भी कषाय- योग्य तैं सुधर्म तें विमुख होय । ऐसे जीवन कूं धर्म का उपदेश, सुहावता नाहीं । तातैं धर्मोपदेश लागता नाहीं । यहाँ बहुरि प्रश्न जो तुमने कहा कि धर्म का उपदेश कोई कौं तो है, कोई कूं नाहीं। सी भगवान का उपदेश तौ सर्व कूं चाहिये और कोऊ यूं होय, कोऊ कूं नाहीं, तो इसमें वीतरागता कह रही ? सरागता आवेगी । ताका समाधान- जो हे म ! तू कही सो सत्य है। परन्तु अब तूं चित्त देय सुनि । जैसे— जगत् विषै वैद्य दो प्रकार होय हैं। एक तौ भोला अरु नानी वैद्य होय है। एक परमार्थी, सरल परिणामी अरु विशेष ज्ञानी । ये दोय जाति के वैद्य हैं। सो कोई भोला- वैद्य शास्त्र ज्ञानतें रहित, नाड़ी परीक्षा, दृष्टि-परीक्षा, मूत्र - परीक्षा, पसेव- परीक्षा, शकुन परीक्षा- इन आदि जे वैद्य के गुण, तिन रहित मूर्ख वैद्य होय । सो तो लोभ के वश तथा मान बड़ाई के अर्थ अपनी महन्ता भोले जोन को बतायवे कौं, अज्ञान वैद्य ओषधि देय जतन करै । सो केक रोगी दीर्घायु के धारी, सो तो कोई अपने पुत्र तें बचे है। रोग कुछ दिन दुख देय, आखिर जाता रहे । सो वह भोले- रोगी ने जानो, या वैश्च नै नोहि मला किया है। सो इस वैद्य का यश किया, धन दिया और जो अल्प आयु का धारी रोगी था, सो जनन करते वि देव तैं ही मर गया। सो इस रोगी के घरवाले इस वैद्य को बहुत निन्दा करें। जगह-जगह में वैद्य को निन्दा करते भये । सो जोवना भरना तो कर्म के आधीन है। वैद्य का कछू सहारा नाहीं । परन्तु या वैद्य की इतनी प्रज्ञाता है। जो बिना विचार परीक्षा- रहित इलाज कर है। ता वृथा जगत् में निन्दा करावे । सो तो ये मूर्ख वैद्य कहां हैं और जे विवेकी वैद्य हैं। सो अनेक वैद्यक शास्त्रों के ज्ञान सहित नाड़ी परीक्षा, मूत्र परीक्षा, दृष्टि परीक्षा, पसेव-परोक्षा, शकुन परीक्षा के ज्ञान सहित
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