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अब याके कठोर हृदय विर्षे कोमल वचन पर नाहीं। तब और कोई पापी जन कोई धर्मात्मा का द्वेषो था, सो था जाय अनेक सेवा चाकरी खुसामद करि ताकौं मित्र समानि करि पोछ वात कही। जो ये धर्मात्मा है सो हमारा द्वेषी है। तातै तुम हमारे हितू हो, कृपा करौ हो सो या धर्मों से स्नेह-सत्कार तजौ। हम तो आपके सेवक । हैं। मान-कषाय के योग” औरक नाहीं देखे है और कदाचित् देखे तो तुच्छ देखे है । जैसे—महाअन्ध तो कोई पदार्थ देखता नाहीं और अल्प अन्ध होय है सो पर के बड़े पदार्थन को छोटे देखे। तेसे मूर्ख जानना तथा महामायावी, बांस की जड़ की लाठो समानि है गांठ-गठीला कुल हृदय जाका तथा हिरण समानि चञ्चल वकचित्त का धारी तथा नाग-गमन समानि हृदय का धारी, दुराचारी, मूर्खता सहित ऐसा मायावी, दगाबाज होय तथा महालोभी मार्जार (बिल्ली) समानि आमिष ( मांस) भक्षी तथा विषभरे (छिपकली) समानि आमिष लोभ धारक तथा मधुमाखी समानि लोभ का धारी शेसे क्रोधी-मानी-मायावी व लोभी, शान्ति रस भाव जो समता भाव ताकरि रहित सप्तव्यसनी और अनेक दोषन सहित ताका निवास इत्यादि औगुणन का धारी, भले गुण रहित सत् पुरुषन को निन्दा करनहास सत्संगोन की सभा में अनादर योग्य ऐसा महामूर्ख, ताके पासि धर्म-कथा करना वृथा है। तातें महापण्डित विवेकी जन जौ सम्यादृष्टि के धारी हैं सो मखन कं धर्म का उपदेश नाहीं देय हैं। यहां प्रश्नजो तुमने यहां कहा कि मूर्खन कू उपदेश देना योग्य नाहीं। सो संसार में पण्डित तो थोड़े दीखें हैं और भोले मूर्ख जीव बहुत देखिर है। सो उपदेश बिना मर्च का भला कैसे होय? और समझे को कहा उपदेश है? यह तो सब जाने। अरु उपदेश तो असमभ-मुख-मोले ही कू है। सो योग्य है। यहां भोले • उपदेश मनै कैसे किया? ताका समाधान भो भव्य ! जो इत्यादिक कपट वचन कहे। तब वा मुर्ख नै मूख के कहे तें, शुद्धधर्मात्मा ते द्वेष-भाव करि, जाप भो हठो भया । अरु कुमार्ग सेवन करता भया। जब उस धर्मात्मा को देखे, तब हो द्वेष-भाव रूप भाव हो जाय। सो इनका सत्संग छूटि गश तथा जो संग भया ताकरि हृदय कठोर भया। अनाचार मला लागने लागा। तातें यह भी जानता-पूंछता पापी-मूर्ख के कहै तें, शुद्ध-धर्म छोड़ कुमार्ग में लागा। उल्टा धर्म तें तथा धर्मो-जीवन त द्वेष-भाव करि, पापरूप प्रवर्या । ऐसी कहने लगा, जो हमारा होना है सो होय है। ऐसी जाति का भोला-मुर्ख होय सो अपने हिताहित में तो नाहीं समझे और कषाय तीव्र होय रीसेक धर्मोपदेश