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अभिलाषी मोल-खो परांण सिद्ध पदधर बाँधि अनन्तकाल सुखी भया थाहै है । सो ऐसे तो योग्य ही है। याको वांच्छा नहीं कहिये। ये घर बांधि ध्रव रहना है और जे तपरूपी धनतें वैश्या समानि चञ्चल देवादिक के सुख चाहें ते विवेकी नाहीं ऐसा जानना। तामैं भी ये विशेष कि जो पर-भव के इन्द्रियजनित वांछित सुख के निमित्त धर्म सेवें सो धर्मों और इसी मव सम्बन्धो धन, पुत्र, स्त्री, रोग, नाशादिक कू धर्म से सो पापी हैं। ऐसा जानना। ताः सम्यग्दृष्टि का तप इन्द्रिय सुरु अपेक्षा निर्वाछित हैं और जिन-आज्ञा प्रमाण देव-धर्म का सेवना मोक्ष-मार्ग के निमित्त धर्म का सेवना दयापूर्वक यत्रतें तप, संयम, पूजा, दानादिक धर्म के बङ्गन का सेवना सो । पारमार्थिक धर्म-सेवन है। ऐसे च्यारि हो प्रकार मिन्न-भिन्न धर्म सेवनेवाले जीवन का अभिप्राय जानना। तिनमें पारमार्थिक धर्म-सेवन है सो तो मोक्ष-मार्ग है और बाकी के धर्म-सेवन के भाव है सो अल्प सुख देयकै संसार समुद्र में नाखें (डाले)हैं। तातें रोसे भले-बुरे धर्म की परीक्षा करि धर्म-सेवन करना सो कषाय सहित इन्द्रियसुखा को वांच्छा करनेहारे ऐसे कुगतिदायी कुधर्म-भाव तजि पारमार्थिक धर्म-सेवन करना योग्य है। आगे शास्त्र, छन्द, काव्य, गीत के जोड़नेहारे कवीश्वरन का जो अभिप्राय है सो ही कहिये हैमाधा-धम्मौ धम्म फाट हेतव, जाचिक उदराय अधम्म लोभादी । परजणाय भण्डम, णलजय हासि, जोड बफताए ॥६५॥
अर्थ-धर्मी तो धर्म-फल हेतु, जाचक उदर भरने के हेतु, अधर्मो लोम के हेतु, भांड़ पर के रायवे के हेतु, निर्लज्ज हांसी-कौतुक के हेतु. जोड़ के वक्ता होय है। भावार्थ-जोड़-कला का ज्ञान अनेक जीवन के होथ । श्रुतज्ञानावरणीय के क्षयोपशम करि अनेक भले-भले परिडत होय हैं सो अनेक शास्त्र जोड़ें हैं। कोई | अनेक छन्द, काव्य, गाथा जोड़ें हैं। कोई पद-विनती जोड़ें हैं। कई गीत, किस्सा, कहानी जो हैं। इत्यादिक अनेक जोड़-कला के ज्ञान सहित प्राणी पाइये हैं। परन्तु इन जोड़-कला करने में परिणतिअभिलाषा जुदी-जुदी हैं । अरु जुदी-जुदी अभिलाषा होते तिन जोड़-कला के ज्ञान का फल भी जुदा-जुदा । पावें हैं । जोड़-कला करते अन्तरङ्ग जैसी अभिलाषा होय है तैसा ही फल होय है । सोही कहिये है। कोई धर्मात्मा जोवनकों तो श्रुतज्ञान की अभिलाषा है। सो तो शास्त्र के छन्द, गाथा, काव्य, पद विनती जोड़ें। ।। सो धर्म के फल की इच्छाकं लिये पर-भव स्वर्ग-मोक्षादि सुख की वच्छिा सहित हैं। अन्तरङ्ग के श्रद्धानकों
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