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करें हैं। सो तो धर्म-मूर्ती सत्-पुरुषन के प्रशंसने योग्य हैं और बाको के च्यारि जाति के कवीश्वर है सो पापबन्ध करनहारे हैं। ऐसे श्रुत-ज्ञान सहित खोटे कवीश्वर होंथ हैं सो तजिवे योग्य हैं। आचार्य कहैं हैं कि संसार । भ्रमत अनन्त-भव अज्ञानता के होय हैं। तब एक भव विशेष श्रुत-ज्ञान सहित विवेक चतुराई सहित ज्ञान का मिले है। सोरोसा उत्तम ज्ञान कों पायकें यह जीव कुकाव्य करि वृथा खोवे हैं। ये सर्व जाति जोड़-कला है। सो तो हीन ज्ञानोन तें नहीं हाथ है। 'जं जीव विशष ज्ञानी हाय, महाचतुर हाय, अनेक नय-विवेक के ज्ञाता होय, तीक्ष्ण ज्ञानधारी होय, तिनतँ जोड़ि-कला होय। सो ऐसे तीक्ष्ण ज्ञान का धारी उत्तम बुद्धि भले तो यह बड़ा आश्चर्य है। अहो भव्य ! तुच्छ-सा इन्द्रिय सुख अरु अज्ञानी-जीवन के मुख की प्रशंसा के निमित्त, ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान, वृथा कर है। सोहम कहा उलाहिना देहि ? तैंने वैसी करी, जैसे—कोई बन्दरकू रतन-कश्चन के आभूषण यहराय, मोती की माला ताके उर में डारि, मस्तक पै रतन-जडित मुकुट धारि, अनेक वस्त्र पहराहि, शोभायमान किया और अनेक मेवा ल्याय, ताक आगे खायवे कंधर। ऐसे में कोई वन का बन्दर ने, नीम की निघोरी दिखाई। कही ये वन का भोजन लेऊ । अरु सैन तैं, कहता भया। जो हे मित्र, आप बन्दी में कहाँ बैठे हो? ऐसे यह बन्दर, अज्ञानी बन्दर के स्नेहते अरु निवोरी के लोभ तें, अपने शिरका रतन-मुकुट फैकि, मोतीन की माला व वस्त्र डारि, उत्तम भोजन-मेवा तजि कैं, वन में जाय। सो इस बन्दर की भूल कहां ताई कहिये ? तैसे, बन्दर की नाई मलै जो पण्डित, ताकों कहां कहिये। ये विनाशिक-भोग के अर्थि तथा लोक-प्रशंसा कुंअपना भला ज्ञान, मलिन करें हैं। ये जोड़ि-कला करने का उत्तम ज्ञान पाय, ताके मैद को नहीं जानता, पापको उपावै। सो इस बात का बड़ा आश्चर्य है। इस भूल की कहा कहिये ? जैसे-एक कटईया. लकड़ी काट कौ वन में गया। वानै एक चिन्तामणि रतन याया। ताक याने उठाय लिया। ताकों देखि विचारा, कि कोंऊ रगदार पाषाण की गोली है। अच्छी दीखें है। याकं घर ले चल । यातें लड़का खेला करेगा। रोसी जानि या मुरखने परख्या बिना, चिन्तामणि रत्र को लेय के अपनी लँगोटी ताकी गांठि बांध्या। फेरि वन में लकड़ी काटने लगा। सो काठ के भार को बाँधि, अपने शीश पै धरि, वन कौं तजि, घर को आवे है। सिर 4 भार है। सो धिक्कार इस अज्ञानता कौं। जो चिन्तामरिण तो पंछली तें बन्ध्या है, सो तो पासि है और शीश पै काठ-भार है। ऐसे ही