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तातें राजा पे भी दया नहीं पलें और वैद्य हैं सो ओषधि के निमित्त अनेक वनस्पति कटावै। अनेक की छाल उपड़ावें। अनेक वनस्पति को जड़ खुदवावै। अनेक कन्दमूल-साधारण वनस्पति का रस कढ़ावना, पिसवाना ॥ २९० इत्यादिक बड़ी हिंसा करते भी ताका चित्त दया-भाव रूप नहीं होय है तथा आली (गोली) वनस्पति को लकड़ी जलाय, बहुत दिन अग्नि का आरम्भ करते भी, चित्त में दया-भाव नाही होय है। तात वैद्य का किसब, दयावान नाहीं करें और छीपा ताके अनगाले जल से धोवना, बिलोवना, उकालना. बड़ी अग्नि का आरम्भ करना इत्यादिक आरम्भ मैं याके भाव, दया रूप नाही होय। तातं छीपा 3भी दया नाहों पलै। धोबी के किसब में भी अनेक अनगाले जल का मधन, नई दिन अनगाले जल का दिलोवा, बनेट विंग का समूह, छोपा को नाई आरम्भ का किसब है सो दया रहित है। तातें यह भी किसब, दयावान् नाहीं करें और रथवाहक जो गाड़ी-रथ के हांकनेहारे क,बैल मारते, दया नहीं आवे। तातें यह किसब में दया नाहीं वन रक्षक जो माली, बाग की रक्षा का करनहारा, सदैव कौतोहार को नाई हिंसा-प्रारम्भ रूप है तातें माली के किसबवारे पैं भी दया नाहीं पले और मांस-भक्षी जो आमिष का खानेहारा, महाग्लानि उपजावनहारा, ऐसे मांसाहारी पैदया नाहीं पलें। रोसे कहे जे सर्व किसब के करनेहारे, इन करुणा नाही पलै । इनसे, सहज ही रोसा कठोर स्वभावी जीव होय है। सातै दयावान है तिनकौं कहे जो दया रहित किसब तिनमें फंसना योग्य नाहों। तिन किसबवारे में भी वाणिज्य के निमित्त, लोभ करि फँसना योग्य नाही, ऐसा जानना । आगे ऐसा कह हैं कि कृपणादिक का धन ये कृपण नहीं मोग हैगाथा--समय पिपील धाणो, मासिक सञ्चय मधुमुखलक्ष्यो। किप्पण सञ्चय लच्छी, एण भुजय अएणभुञ्जयती ॥ ६ ॥
अर्थ संचय पिपोल धाणो कहिये, चोंटी का धान्य संचयना । माखिक संचय मधु मुख लक्ष्यो कहिये, माखी अपनी लार जो शहद ताकू संचे है। किप्पण संचय लच्छो कहिये, सूम का जोड़ या धन । राण भुजय, अरुण मुअयती कहिये ताकौ ये नाहों भोग है और ही भोगें हैं। भावार्थ-वन की रहनेहारो चोंटो का समूह है। सो तिननै बड़ा खेद खाय-खाय राक-एक अत्र का मुख में वन ते ल्याय-ल्याय इकट्ठा कर-या। सो बापकौं तो भोगने की शक्ति नाही सो भोग सकी नाही पर तथा मोह के मारे, लोभ करि, मन का संग्रह करन्या । सो बहुत दिन इकट्ठा