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होय । सो नाड़ी परीक्षा तो हस्त की, पांव की, शोश की खाली की नसें देख शुभाशुभ रोग का कहना सो नाड़ी परीक्षा और मूत्र की वर्ण, स्पर्श, गन्ध, छोंटादि लक्षण देख शरीर के रोगन का शुभाशुभ जानना सो मूत्र परीक्षा है और रोगी के नेत्र व शरीर को दशा देखि दृष्टि ही तैं रोगी का शुभाशुभ जानना सो दृष्टिपरीक्षा कहिए और रोगी के शरीर के पसीना को गन्ध संधि करि रोग कूं जाने सो पसेव परीक्षा है और कोई रोगी के समाचार लेथ वैद्य वै आवें ताके मुख सूं समाचार सुनि तथा वाके मुख की सूरत देखि, रोगी का शुभाशुभ जाने, सो शकुन-परीक्षा कहिये तथा दूत परीक्षा कहिये। ऐसे वैद्य के गुण सहित, मला वैद्य होय । सो इतने गुण हैं, रोगी के शुभाशुभ जाने सो सुत्रैध, जब रोगो का जोवना जानें, ताका आयु-कर्म बड़ा जानें, तो जतन करें और भला होता न जानें आयु अल् जानें। तो इलाज करै नाहीं। मान बड़ाई की इच्छा है नाहीं, को धन लेय नाहीं । परमार्थ कौं, जतन बताय रोग खोवे, ताका यश ही होय । सर्वं लोक पूजे- प्रशंशैं । ऐसे गुण का धारी सबका उपकार करै । अरु काहू तें कछू चाहे नाहीं । सो यह वैद्य धन्य है। ऐसा निस्पृह गुणी होय, तो पूजा पावै है । तैसे हो भोला, तुच्छ-ज्ञानी, ज्ञानरहित, सरागी, हस्ती-घोटक आदि प्रसवारी के इच्छुक, अपनी महन्तता प्रगट करने की इच्छा जिनकें, ऐसे रागी-द्वेषी देव · तौ सर्व कूं खोटा - अतत्त्व उपदेश देय, अपना पूज्यपद तौ कराय दें। पीछे सुननेहारा नरक जावो, चाहे स्वर्ग जावो । चाहे वह जीव अदेश योग्य होऊ, चाहे मति होऊ । सर्वकूं एक-सा उपदेश देय। शिष्य का बुरा-भला नाहीं विचारें । सो तो भोला देव गुरु कहिए और अन्तर्यामी, सर्व-लोक को जाननहारा, केवलज्ञानधारी प्रभु शुद्ध देव वीतराग का उपदेश ताहीक है, जाक उपदेश लागे अरु जाकौंन लागें ताकूं उपदेश मन है । वृथा उपदेश देते नाहीं । देने योग्य कूं देय हैं। जैसे- पारस पाषाण है, सो कुधातु जो लाहा ताक अपने स्पर्श तैं कञ्चन करे है। कांसा, पीतल, तांवादि अनेक धातु हैं। ते धातु पारस लगाय कञ्चन न होंय हैं । जे होने योग्य होय, सो होय हैं। तैसे हो सर्वज्ञ भगवान का उपदेश, भव्य होय, निकट संसारी होय, तिनक तो होय है। ऐसे भव्य निकट संसारी, मोले-मूर्खा कूं, धर्म रुदै भो है। ताका लाभ भी होय है। तांतें ऐसे भोले कूं उपदेश है और जे अमप्र तथा अभव्य समान जे इरानदूर भव्य जीव तिनकूं कभी भी सुधर्म का लाभ नहीं
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