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इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में तीर्थ परीक्षा विष ज्ञेय हेय-उपादेय का विचार करनेवाला
पञ्च-दश पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥१५॥ आगे परस्पर काल गमावना रूप जो चर्चा तामें ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिये हैगाथा-पुण्णदा अघखय कारिय, चरचोपादेय परमफलदायी पावमयो शुभहारी, सा चरचा तु हेय जिण मग्गो ॥ ४१।।
अर्थ-जा चर्चा ते पुरष होय पाप का नाश होय, सरपंचों तो उपादेय है जोर जातें पाप-कर्म उपजै और अगले किया पुण्य-कर्म ताका अभाव होय ऐसी चर्चा हेय है। ऐसा जिनदेव ने कहा है। भावार्थ चर्चा नाम परस्पर वार्तालाप (बोलने)का है। सो बतलावना है सो विवेकी जीवनकौं ज्ञेय-हेय-उपादेय करि बतलावना योग्य है। सो हो कहिरा है। शुभाशुभ चर्चा का चमुच्चय मैंद सो तो ज्ञेय है। ताके ही दोय मैद हैं। एक शुभ चर्चा है और एक अशुभ चर्चा है। सो जहाँ तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, कामदेव, देव, इन्द्र इत्यादिक, महान् पुरुषन की उत्पत्ति राज-सम्पदा भोग सुख इनका वैराग्य इनके स्वर्ग मोक्ष होने का कथन सो प्रथमानुयोग ताकी चर्चा परस्पर करना। सो पापको नाशै अरु पुण्यफल देय ऐसी चर्चा धर्मात्मा सम्यग्दृष्टिन को उपादेय है। तोन लोक को रचना जो अधोलोक सात राज़ तहां मवनवासी व्यन्तर देव पुण्य का फल भोगते सुख समुद्र मैं मगन भरा काल गवां हैं। ताके नीचे सात नरक हैं। तहां जीव बड़े पापन का फल भोगते, महादुख समुद्रमैं डूब रहै हैं। विलाप करते, काल व्यतीत करें हैं और मध्य-लोक विर्षे असंख्याते द्रोपसमुद्र हैं। तिनमैं पैंतालीस लाख योजन तो मनुष्य-लोक हैं। बाको के सर्व द्वीपनमैं तिर्थक-लोक है। अढ़ाई द्वीपमैं मेरु कुलाचलादिक की चर्चा सो उपादेय है और ऊर्ध्वलोक विर्षे सोलह स्वर्ग हैं। अहमिन्द्र, सर्वार्थसिद्धि आदि के देव. पुण्य फलसुख भोगते सुखी हैं। तिनके ऊपरि सिद्ध-लोक, तहाँ अनन्ते सिद्ध-भगवन्त विराजे हैं। ऐसे इन तीन लोक की चर्चा परस्पर करनी, सो करणानुयोग चर्चा सम्यग्दृष्टिन करि उपादेव करने योग्य है और जहां मुनि-श्रावक के समिति, गुप्ति आदि ग्यारह प्रतिमादि आचार की चर्वा करना. सो चरणानुयोग की चर्चा उपादेय है। जहां जोव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, धर्म, अधर्म, काल, आकाश-ए षट द्रव्य हैं । जोव-तत्व, अजीव-तत्त्व, पासव-तत्व, बन्धतरव, संवर-तत्त्व, निर्जरा-तत्व और मोक्ष-तत्व। इनमैं पुण्य और पाप मिलाये नव पदार्था। ऐसे षट् द्रव्य, सप्त
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