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कदाचित अपना स्वार्थ सधता न जाने तो माता-पिताकत है और मित्र है। सो स्नेह करें है और ऐसा विचार करें है। जो ये धनवान है। हुकुमवान् है। राज पञ्चन में इसका बड़ा चलन है। तात यात द्रव्य का सहाय काम पड़े होय है तथा खान-पान भली वस्तु वस्त्रादि मिले है तथा प्रयोजन पड़े कष्ट में सहाय करे है। ऐसे स्वार्थ के बन्धनते बन्ध्या मित्र स्नेह कर है कदाचित् अपना पुण्य घटै. हुक्म मिट, धन घटै तौ मित्र अपना प्रयोजन सधता न जानि मित्रता तजै है। तात मित्र भी स्वार्थ के बन्धनतें बन्ध्या स्नेह करै है और बन्धु जो भाई हैं, सो अपना मनोरथ सधै तबलौ सनेह रूप हैं। प्रयोजन सधता नहीं जानि जुदा होय। पुत्री है सो अपना प्रयोजन सधै तबलूं माता-पितान की सेवा करै, उपकार मान और स्वामी की आज्ञा प्रमाण सेवक चले। जबलौं अनेक कारज घर के सुधरे, तबलं स्वामी कहै मेरा भला सेक्क है और जब आज्ञा न माने, तौ दूर करें चाकरी से छुड़ाय देय। तात स्वामी भी अपने स्वार्थ के बन्धनते बन्ध्या सेवा करावे है और भिक्षुक जो जाचक मँगता, ताकी याचना भंग न होय जबलौं अन्न, वस्त्र, धन पावै तबलौं यश गावै। याचना भंग भये यश न गाव निन्दा करें। तात याचक भी स्वार्थ के बन्धनतें बन्ध्या है और सेवक है सो स्वामी के घरत अनेक अत्र, धन, ग्राम, हस्ती, घोटकादि सुख सामग्री पावै है। तेते काल सेवक भलीभांति स्वामी की सेवा कर है और अपना प्रयोजन जब नहीं सधै तब सेवा चाकरी तजै तातै सेवक भी अपने स्वार्थ के बन्धन ते बन्ध्या है। इत्यादि कहे जे नाते ते सब अपने-अपने स्वार्थ के जानना। बिना स्वार्थ संसार प्रयोजनवाले, जीव ते स्नेह करते नाहीं। ऐसा हो अनादि स्वभाव जगत का जानना और धर्म-रस के पीवनहारे त्यागी ज्ञानी जगते उदासीन समता भावी दया-भण्डार परमार्थ-मार्ग के वेत्ता धर्म-स्नेही ये जीव जात स्नेह करें, जाकी रक्षा कर सो स्वार्थ रहित। तातें धर्मी पुरुषनकौं कोई इन्द्रिय जनित स्वार्थ नचाहिये। इनका स्वार्थ परमार्थ निमित्त है। ऐसा संसार का स्वभाव हो स्वार्थमयी जानि, विवेकी हैं तिनकों अपने स्वार्थ साधवै की परमार्थ-मार्ग चलना योग्य है जाते परम्पराय मोक्ष होय है। आगे जिन-जिन पदार्थन का चपलता रूप सहज ही स्वभाव है, सो मिटता नाही ऐसा बतावे हैंगाथा-स्वांचा एक अति सामगोरु शितो सहल व मनायो । पीपल पल करि कण्णो सह मण बस एह प्राइवर भावो।।
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