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हम भी जानें हैं। परन्तु हम शास्त्र वोचने का ज्ञान नाही । अरु जिनवाणी सुनवे की बड़ी अभिलाषा है। तार्ते यद्यपि इस मिथ्यादृष्टिकं शास्त्र का विशेष ज्ञान नाहीं है। परन्तु अनेक संस्कृत, प्राकृत, छन्द, गाथा की वाचनकला में प्रवीण है । वाचन-कला भली है, अच्छे स्वर तें कहै है । अर्थ मी सर्व खोल देय है। करउ अच्छा है। सो हम याके पास जिन आम्राय के शास्त्र वचाय, तार्के अर्थ का ग्रहण करि, धर्म-ध्यान में काल गमाय पुण्य का संचय करेंगे। यामैं कहा दोष है ? जो है धर्मानुरागी ! तू मी सुनिं। ए मिथ्यात्व मूर्ति, क्रोध,
मान, माया, लोभ का पोषणहारा, दश वचन जिन वचन अनुसारि कहेगा तो तिनमें भी दोय वचन मिथ्यात्व पोषक कह जायगा । सो तुमकूं विशेष ज्ञान तो है नाहीं। जो ताका निर्धार करोगे। सो सामान्य ज्ञान के जोगतें तुम मिथ्या कूं भला जानि श्रद्धान करोगे। अरु मिथ्या वचन श्रद्धान भये तुम्हारा धर्म रतन शुद्ध श्रद्धान ताका अभाव होगा। संसार भ्रमण होयगा। व्थारि गति के दुख जनम-मरण के भोगवोगे। तातें मिथ्यात्वी के मुख का उपदेश योग्य नाहीं और जो जिन भाषित तत्त्वन का वेत्ता होय। सुदेव वीतराग गुरु-नगन वीतराग धर्मदयामयो ऐसे देव-गुरु-धर्म का दृढ़ श्रद्धान होय । अरु जाकों वाचन कला अल्प होय तथा ज्ञान जार्के सामान्य भी हो तो ताकै मुख का धर्मोपदेश तो सुखदाई है। परन्तु मिध्यादृष्टि अतर श्रद्धानी का धर्मोपदेश भला नाहीं । जैसे कोई दोय पुरुष परदेश-प्रामान्तर गये। सो तिनमें एक तो शुभाचारी है व एक कुआचारी भोला है। सो दोऊ ही रसोई नहीं बना जानें। जब भोजन की भूख लागी। तब परस्पर बतलावते भये। जो है भाई ! भूख लागी कहा कीजिये ? पैसे तो बहुत हैं पर रसोई करना नाहीं आवे। तब वह भोला जीव जो आचार में नहीं समझे था। सो बोल्या - हे भाई! भूख लागी है तो इस मठियारी के घर तुरन्त का किया मनवांच्छित स्वाद का देनेहारा भोजन ताजा है। सो था माँगे दाम देव भोजन करो। तब दूसरे आचारी ने कह्या भो भाई ! त मठियारी के घर का भोजन मला है अनेक रसमय स्वाद सहित है तो कहा भया। परन्तु आचार रहित है । तातें अयोग्य है और जाति के सुनैं तो जाति तैं निषेधें । पांति तैं उठाय दें। अभक्ष्य के योग पर भव में नरकादि दुख होय । तातें हम तो अपने हाथ तैं अथवा अपना जाति भाई होयता ताके हाथ की कवी-पक्की नोरस खाय चारि दिन परदेश के काटि नाखेंगे और मरण कबूल है, परन्तु पडियारी का रोटी नहीं खायेंगे। ऐसा भठियारी
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