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का मला भोजन तजि अपने जाति भाई की करी कच्ची-पक्की रूखी-सूखी अङ्गीकार करि अपना धर्म राख्या और जे अज्ञानी आचार रहित होंय भूख मेटवे कूं स्वाद लम्पटी होंय ते भठियारी की रोटी खाथ हैं परन्तु आगे कूं जाति में गये यात्रा अनाचार सुन्या जायगा, तब जाति से निकास्या जायगा। पर-भव दुर्गति में पड़ेगा। तैसे ही भठियारी के भोजन सदृश मिथ्यात्वी का उपदेश जानि सम्यग्दृष्टि दृढ़ श्रद्धानोकुं तजना योग्य है और कोई भोले ऐसा कहूँ जो शास्त्र तो जिन आम्राय के हैं। सो कोई ही होऊ, बचवाय के अर्थ समझ लेयंगे। ते भोले श्रद्धान रहित शिथिल परिणामी, अवार भठियारी को-सी रोटी खाय सुखी हुए हैं। परन्तु पर-भव में तौ जिन-आना प्रमाण दृढ़ श्रद्धान का फल होय है। तूं धर्म-फल का लोभी है अरु मोक्ष मार्ग का अभिलाषी है तो मिथ्यादृष्टि के मुख का उपदेश तोकूं श्रोत्र द्वारे भला सुर व भला कण्ठ के जोग अच्छा भी लगता होय तो भी सर्प की मणिवत् भठियारी के भोजनवत् तजना योग्य है। ऐसा जानना और केतेक भोले संसारी चतुर जीव ऐसा श्रद्धान करें हैं, जो मिथ्यात्व है तो वह है, अपने कूं कहा ? अपनेकूं तो बचवाय लेना और एक दीय वचन कोई मिथ्यात्व रूप खोटे कह गया होय, तो वह जाने। वह बलवान् है। सो जिन भाषित अनेक वचनों में कोई दोघ वचन अतत्वरूप सरधे गये तो कहा होय है ? ताका समाधान- जो हे भव्य ! ऐसा विचार तौ महादुखदांयी जानना । जैसे- मला षटूस सहित पुष्टि करशहारा भोजन बनाया और कदाचित् ऐसे उत्कृष्ट भोजन में थोड़ा-साहलाहल विष डाल दिया होय तो उस हो भोजनकों खाए मरण होय । तैंसे ही जिन वचन स्वर्ग मोक्ष फल के दाता हैं। तिनके सुनै जीव का कल्याण होय समभाव बँधे । ऐसे वचनक उपदेश में कोई पापी आत्मा, कषाथरूपी हलाहल जहर नाखिकैं कथन करें। तो श्रीतानकों दुखदाता होय। ऐसा जानि मिथ्यात्वो बहुत ज्ञानी होय और आप भोला होय तो अपने मुख पञ्च परमेष्ठी के नाम का जाप करना, परन्तु मिध्यात्वी के मुख उपदेश नहीं धारना। आगे सर्प हू तैं दुष्ट जीवनकों विशेष बतावै हैंगाथा - खल अहि कर सुहावो, तिनमहि खल अति क्रूरता होई । अहिमन्तर उवचारो कुठ उवचारोयलोपतिय दुलही ॥५७॥ याका अर्थ - खल कहिये, दुष्ट | अहि कहिये, सर्प । कूरसुहावो कहिये, इनका क्रूर स्वभाव है। तिरामहि खल अति करता होई कहिये. तिनमें खल की क्रूरता बड़ी है। हिमन्दर उवचारो कहिये, सर्प का उपचार तो
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