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। मन्त्र है । दुठ उवचारोयलोयतियदुलहो कहिये, दुष्ट का उपचार तीन-लोक में दुर्लभ है। भावार्थ-जो दुष्ट हैं सो || || पर कौ धर्म-कर्म कार्यन में निराकुल-सुखी देख बिना प्रयोजन दुखी होय हैं। रोसा जो दुष्ट सो पर कौ दुखी । देखि आप हर्ष मानता होय। सो एक तो यह और दूसरा सर्परा दोऊ महाकर स्वभावी हैं। परन्तु इनमें
दुष्ट-जन की करता विशेष जानना। काहे तसो कहिये हैं—जो महाविष का परचा काल-रूप सर्प ताके खाये नाहीं बचे। कर्म जोग तं बचे नाही तो मरै ही है। ऐसे मयानक सर्व को पंख पाँव लागै तो यह सर्प काटे। सो याका विष दूर करने का अनेक मन्त्रादिक इलाज है। परन्तु बिना हो कारण द्वेष रूपी विष का भरया दुष्टात्मा याकी क्रूरता मैटै कौं कोई तीन लोक विर्षे उपाय दोखता नाहीं। तातै भो भव्य ! सर्प को क्रूरता तें इस दुष्ट को करता अधिक जानना। सारी अपने विवादलत युएम को रसइनके संगरौं बचना बहुत सुखकारी है। जो कुसंगति से बचि सत्संग मिलाय अपना भला करना है सो मनुष्य पर्याय के विवेक का घे ही उत्तम फल है। आगे सजन-दुर्जन का स्वभाव बताइये हैगाथा-मक्षक जीक पणंगा, दुठादि चतुक होय दुखदायो। ईख दण्ड फणक सुअगरा सयणादि चतुक होब सुहगेयो ॥ ५८ ॥
याका अर्थ-मक्षक कहिये, माख। जौंक कहिये, जल-जोंक। पखंगा कहिये, सर्प। दुठादि चतुक होय दुखदायो कहिये, दुष्टजन को आदि लेश च्या दुखदाई हैं 1 ईख दण्ड कहिये, सांटा (गन्ना)। करणक कहिये, सोना। सुआगरा कहिये, शुभ अगर-नन्दन 1 सयणादि चतुक होय सुहगेयो कहिये, सज्जन पुरुष को आदि च्यारों सूखदाई जानना । भावार्थ-माती, जोंक, सर्प अरु दुष्ट-नर-रा च्यारि पर-जीवनकौं दुखदाई कहे सोही कहिये हैं-जो गाखी, पराये भोजन-जल में पतन होय मरण करि पीछे अन्न-जल लेनेवाले कू दुखी करे।। सो देखो, इस माखो को दुष्टता। जो पहिले तो आप मरि, पीछे और कं दुखी करै और जल को जौंक का रोसा
हो सहज स्वभाव है। जो दूध का भरा आँचल पर लगाव तो दूध कं तजि, लोहू कू अङ्गीकार करें है। सर्पका २८. रोप्ला स्वभाव है जो ताकौ दुग्ध विवाइये, तो जहर होय । सो प्यावनेवाला बहुत दिन पर्यन्त सर्प को दुग्ध प्याय
पुष्ट करै। परन्तु कदाचित् प्यावनेहारा गाफिल रहेगा, तो ताही कू खायगा और ऐसे ही दुष्ट-प्रासी 4 अनेक उपकार करि, ताकी रक्षा करि, पालि पुष्ट करौ। परन्तु यह दुष्ट-जन, सर्व उपकार भूलि के उल्टा उपकार