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। स्थिरो-नह रहतानाही। यह अनाना काक स्वर में समझना नाहीं। इस दुरात्मा का उपयोग, विकया। श्रीलड़ाई, राज-कथा, धन-कथा. पर को निन्दा करना इत्यादि पाप स्थानकन मैं तो निःप्रमाद होय भले प्रकार मु मन-वचन-काय को एकता सहित या कुबुद्धि का चित्त लाग है और धर्म-पन्थ-विसरे जीव कौं धर्मोपदेश
दीजिये। तब धर्म-दरिद्री और विकल्प विचार धर्मोपदेश नाहों धार तथा धर्म सुनतें निद्रा आवै सो शयन करें| ऊँधै और कदाचित् जागै तो दूसरे मनुष्यनतें जो पासि तिष्ट्या होय तातै वार्ता करने लगे। सो आप तो पापी है
हो। परन्तु समीप तिष्ट्या पो जीव ताकौं बातों लगाय वाका धर्म घाति करि वाका परभव बिगा.। तो ऐसे जीव-धर्म सन्मुख कैसे होंय ? तातै कुटिलचित्त धारो मायाचारो दुष्ट-जीवन कं धर्मोपदेश लागता नाहीं। तात जे जीव विवेको हैं तिनकों धर्मोपदेश में प्रमाद करि चित्त चञ्चल राखना योग्य नाहीं। आगे जिन-आज्ञा रहित जे अतत्व-श्रद्धानी महापण्डित भी होंथ तो ताक मुख का उपदेश सुनना योग्य नाहीं। ऐसा कहै हैंगाघा-अहिसिरणग उक्कट्टो, गो पाणान्त होय जेमाये । इव मिछि मुह उबदेसो, सधा कुगय देय भवमयर्ण ॥ ५६ ॥
याका अर्थ-'अहिसिरणग' कहिये, सर्प के शोस मणि रत्न है सो। 'उक्टो कहिये, उत्कृष्ट है। गये पाणान्तहोय' कहिये, ता रतन को ग्रहे प्राणन का नाश होय है। शोमारा' कहिये, निश्चय तें। 'इवमिछिमुह उवदेशो' कहिये, तसे ही मिथ्यादृष्टि जीवन के मुख का उपदेश जानना। 'सधा कुाय देय भवमय कहिये, इनका श्रद्धान किए कुगति के अनेक जनम-मरण देय है। भावार्थ-नाग के मस्तक पर मरिण है, सो महाउत्कृष्ट है। अनेक गुण सहित है। सो ताका लोभ क्रिये, कोई उस रतन को लीया वाहै। तो लोभ भी नहीं सधै, अरु मरण को पावें। क्यों, जो स्तन ती अच्छा है; परन्तु महाविष-हलाहल मर चा, चपल-बुद्धि,महाक्रोध कषाय का धारी भुजङ्ग, कालरूप, ताके पासि है। सो विष का भर या सर्प ताकै शिर ते मणि-रतन का लेना, सो ही मरण का
कारण जान । सो हे भव्य ! तेसे कुदैव, कुगुरु, कुधर्म ताका सेवनहारा, जिन-भाषित-धर्म त विमुख, महाक्रोध|| मानादि कषायरूपी जहर से भरचा निध्यादृष्टि, सो ही भया सर्प, ताके पास भली-विद्या रतन है। परन्तु कदाचित् याक मुख ते उपदेशरूपी रतन को ग्रह्या चाहै तथा मला जानि श्रद्धान करे तो कुगति जे नरक-पशु गति, सो तिनके जनम-मरण के तीव्र दुख कं प्राप्त होय है। यहां प्रश्न जो तुमने कहा सो सत्य, इसकी मियादृष्टि तो