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याका अर्थ-स्वांण पुच्छ कहिये, कुत्ते की पूंछ। अहि गणो कहिये, साप की चाल । दुठ चित्तो कहिये, दुष्ट जीव का चित । सहल यक कहिये, सहज ही वांक का है। राहपायो कहिये, इनके मिटावे का उपाय नाहीं। पोपल दल कहिये, पीपल का पात (पत्ता)। करि करणो कहिये, हाथी का कान । सठ मरण कहिये, मूर्ख का मन । || अख सुह कहिये, इन्द्रियों के सुख। शाह ध्रुव भावो कहिथे, ए ध्रुव भाव नाहीं। भावार्थ-कुते की पूंछ, सहज । हो बांको होय। ताके सीधी करवकों, कोऊ उपाय नाहीं। याका सहज ही स्वभाव वैसा है और सर्प की चाल स्वभाव ही की है। या भी होर उपार गीली होगी नाहीं तैसे ही दुष्ट-जीव पापाचारोन का चित्त भी, सहज ही बांका-कुटिल है। दगाबाजी कर भरचा है। याका भी सहज-स्वभाव है। या दुष्ट की बहुत सेवा कसे तथा याका विनय करौ, याते नमो तथा याकौं बहुत धन देऊ, इत्यादिक अनेक उपाय करौ, परन्तु कोई भी उपाय ते इस अनाचारी का चित्त सीधा नाहीं होय। यातें भो भव्य ! तु सर्व जगह प्रमाद रुप रहियो। परन्तु दुष्ट-जीव के संग होते, गाफिल-प्रमादरूप मत होईयो! भो भव्य [ काले सर्प ते क्रीड़ा करते प्रमादरूप रहे. तो मरण पावे। सी एक ही भव दुखी होय। परन्तु तूं या दुष्ट के स्नेह-संग पाय, गाफिल रहेगा, प्रमाद के वशीभूत होयगा, तो तेरा भव-भव बिगड़ जायगा। महादुर्गति में पड़ेगा। यहां प्रश्न-जो तुमने कह्या, दुष्ट के स्नेह तें भव-भव दुख उपजै, सो संग किये ही दुष्ट कैसे भव बिगाड़ेगा ? ताका समाधान—जो है भव्य तु सुनि । याका उत्तर समम श्रद्धान कोजे, तेरा बहुत भला होयगा और ज्ञान बधवारी होयगी। भले-बुरे जीवन की परीक्षा का ज्ञान प्रगटैगा। तातै भो धर्मी! चित्त लगाय के सुनना। आप काहू ते द्वेष करें, तो दूसरा भी आपते द्वेष करै।
सो यह सब संसारी जीवन की रीति हैं। परन्तु भो भ्रात! दुष्ट ताका नाम है, जो बिना-दोष परतें द्वेष करें। | याही परीक्षा करि तू दुष्ट कुं जान लेना। आपतौ कोई प्रकार से द्वेष-भाव नाहीं करें और जे दुष्ट हैं ते पराया धन, हुकुम, वस्त्र, आभूषण, हस्ती, घोटक, रथ, पालकी आदि असवारी देख, बिना प्रयोजन सहज ही द्वेष-भाव करें।
में काह का बड़ा यश. गुणी जीवन के मुख ते सनि, यह पापी वृथा ही द्वेष करें तथा कोई को सुमार्गी २७५ | लगता देखि, धर्म सेवन करता देखि, द्वेष करै। कहै,रा बड़ा धर्मात्मा भया। हमारे आगे याके बड़े अनेक पाय
| करते देखे थे। इत्यादिक परकौं सुखी देख, आप निरन्तर दुख करे। परको रोग, शोक, चोट लागी देख,