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दैव, इन्द्र-इन सर्व के सुख अथिर हैं। भावार्थ जाके घर मैं कोटि ग्राम होय, सो राजा है । सो इस राजा
| २७२ के वांच्छित भोग।श और जाको ऐसे-ऐसे पांच सौ राजा सेवा कर-चाकर होय, सो अधिराज कहिये। ताके सुख देखते ही विनशै हैं ।२। और एक हजार राजा जाकी चाकरी करें, सो महाराजा है। ताकी विभूति । ३। अरु दोय हजार राजा जाको आज्ञा माने, सो अर्ध-मण्डलेश्वर कहिये। तिनको सम्पदाठा और चार हजार राजा जाके चरण-कमल की सेवा करें, सो मण्डलेश्वरनाथ कहिये। इनके भोग ।५। आठ हजार राजा जाको आज्ञा माने, सो महामण्डलेश्वर कहिये। ताकी सम्पदा । ६ । और जाकी सोलह हजार आर्यखण्ड के राजा सेवा करें सो तीन खण्ड का अधिपति कहिये। ताके भोग।७। और बत्तीस हजार देश आर्यखण्ड के, तिनके बत्तीस हजार, राणा जिसकी सेवा करें, सो चक्रवती-पट्खण्डनाथ है। ताके पुण्य का माहात्म्य कछु कहने में नहीं आते। छयानवे हजार तौ देवांगना समाति, महासुन्दर, विनयवती रानी हैं। नवनिधि व चौदह रतन, इनके दिये अनेक वांच्छित भोग । जाकी हजारों देव आज्ञा माने। चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ इत्यादिक नाथ, मनुष्यन का इन्द्र। ताकी ए ऋद्धि।८। और महामान शिखर चढ़या, महाअतिशय सहित पुण्य का धारी इत्यादिक पदस्थ का धारी पुरुष, अपनी सम्पदा कू स्थिरी भूत जानि, सदैव सुखसागर में मगन रह्या चाहै था, सो इनकी सम्पदा देखते-देखते नाश कं प्राप्त होय गई। जैसे—बिजली अल्प उद्योग करि नाशकं प्राप्त होय है, तैसे ही महा-चपल सम्पदा विनश गई तथा और विद्याधर महाअतिशयवान् पुरय के धारी, देवन समानि निवासी वांच्छित भोगन के निवासी और च्यारि प्रकार के देव, अद्भुत रस के भोगी महापराक्रमी तथा देवन का नाथ जो इन्द्र, जाको मन अगोचर लक्ष्मी। असंख्यात देवोनि की सराग चेष्टा करि मोहित होय रह्या है चित्त जाका। अनेक मन, वचन, काय के चाहे इन्द्रिय भोग तिनका भोगी देवेन्द्र। रोसै कहे जो देव मनुष्यन को सर्वोत्कृष्ट सुख | सम्पदा सो सर्व विनाशिक स्वासम भ्रम उपजावनहारी जानना। भो भव्य हो! देखो। ऐसी महान् सुख सम्पदा तौ थिर रही नाही, तो तेरी तुच्छ पुण्य करि उपार्जी, अल्प सम्पदा पराधीन सोए कैसे स्थिर रहेगी? तातें ऐसी जानि के तुच्छ स्थिति धारी चपला-विनाशिक सम्पदा तें ममत्व छोड़ि कर मोक्ष के सुख अविनाशिक तिनके निमित्त धर्म का सेवन करना योग्य है। इति। मांगे ऐसा बतादें हैं। जो माता-पितादि सर्व जन अपने-अपने
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