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यातें जल कैसे पीवें ? कैसे सपरें ? यह मलिन है। याही भ्रम बुद्धि को ग्लानि नहीं जाय तो याक कहिए । हे विवेकी ! तू देखि | यह मिट्टी का बासन हैं। ताक अग्नि मैं जाल्या है। ऐसे शुद्ध कलश ताकं नदीमैं दश-पांच बेर धोय शुद्ध किया। ताकूं तूं पवित्र मानता नाहीं । तौ हे सुबुद्धि ! देखि । ए शरीर महामलिन सात धातु रूप अपवित्र अरु पाप मैल तैं मलिन आत्मा सो इस नदी के जल ते सपरै (खान करें) तो कैसे पवित्र होय है ? तू हो तौ इस जल तैं धोये पीछे वासन की धिन नहीं तर्ज है। तो और कोई विवेकी परभव सुख का लोभी आत्मा शुद्ध होता कैसे मार्ने ? तातें तेरे ही एकान्त बुद्धि का हठ है। भो भव्य ! जिनकी हृदय कठिन दया भाव रहित है ते अनगाले जल का समूह नदी का स्नान तीर्थ कहे हैं। नदी है सो तन का मैलि दूर करने योग्य है । अरु आत्माकै पाप मैल लाग्या है ताके मेटने को समर्थ नाहीं । तातें ऐसा जानना जो पाप मैल दूर करनेकूं दान पूजा भगवान का सुमरणादि धर्म अङ्ग र उत्तम तीर्थ समता-भाव के कारण समर्थ हैं। नदी तीर्थ हेय है और ज्ञान चक्षु रहित प्राणी समुद्रकों तीर्थ कहैं हैं । ऐसा उपदेश करें हैं अरु आप श्रद्धे हैं। जो जेती नदी तीर्थ रूप हैं सो सर्व या आय मिली हैं बहुत जल का समूह है। हार्ट ए बड़ा दीर्थगमुद्र है। या विषै स्नान किए पाप कटते मानें हैं । सो आचार्य कहैं हैं । हमकूं बड़ा आश्चर्य यह है। जो जाके जल तैं स्पर्श भरा तन फाटै जाके योग तैं केतैक तो जल मैं पैठते ( घुसते ) डरें हैं। उसे केतेक भोले आत्माराम तीर्थ मानें हैं। सो जाका जल तन के लगते खेद करें तो स्नान किए सुख कैसे होय ? तातें हेय है और केतेक सामान्य बुद्धि के पात्र ऐसा समझें हैं तथा औरनको उपदेश करें हैं कि धरती माता बड़ी धैर्य को धरनहारी है। यार्कों जगत् के जीव अनेक प्रकार खोदें फोड़े हैं। यापै कोई धूरा डा हैं। तो भी धरती खेद नाहीं मानें है और इस धरतीत उपज्या अरु इसही धरती मैं मिलना है । तातें जीवत हो धरती मैं गड़ना शरीर सहित धरतो मैं प्रवेश करना सो धरा तीर्थ है। या समान और तीर्थ नाहीं। ऐसा समझा जीवता हो धरती मैं गड़ि प्राण नारों है और या धारा तीर्थ मानें हैं और यो भोला जीव ऐसा नहीं समझे है जो धरती तीर्थ होती तो यामैं मल-मूत्र कैसे करते ? खोदन जालनादि अविनय भी नहीं करते ? तातैं हे भव्य ! ऐसा जानना जो सर्व धरती तीर्थ नाहीं । सिद्धक्षेत्र की धारा तो तीर्थ है और अन्य धरती - तीर्थ हेय है ।
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