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है । ऐसे ये मूढ़ जोव, नलनी का तोता, घटमैं मूठी तैं बन्ध्या चने का लोभी बन्दर और कांच के मन्दिर मैं धस्या श्वान अपनी भूलि तें दुखी होय हैं। काहूकों दोष नाहीं । तैसे हो इनकी नाई मोही - मिथ्या रस भीजत जीव, पर-वस्तुकूं अपनाथ रागो-द्वेषी होय. संसार दुख का भोगी होय है और जे सम्यग्दृष्टि-सांची दृष्टिवाले हैं, तिनकै भ्रम नाहीं । ए तत्वज्ञानी सांची दृढ़ सरधा का धारक है । याके श्रद्धान मैं पर वस्तु मैं ममत्व नाहीं । तातैं अपने पदस्थ योग्य कर्म-बन्ध नाहीं करें है और मिथ्यारस भोंजे ते कर्म-बन्ध करि जन्म-मरण बिधायें हैं। अनेक तन धरि-धरि तजि अशुद्ध भावी जीव दुखी होय हैं और शुद्धोपयोगी भ्रम रहित हैं, ते कर्म-बन्ध रहित हैं, ऐसा जानना। आगे कहे हैं। जो शुद्धात्मा कैं राते दोष नाहीं
गाथा - तसकर पय जिप बहणी, दुमखो लोग पाव गद पंचो। दुठणरपसु यम णिदो, ए तीयदह्नभय रहय सुद्धादा ॥ ५१ ॥ अर्थ-तसकर कहिये चोर, पय कहिये जल, शिप कहिये राजा, वहशी कहिए अग्नि, दुमखो कहिये दुभिक्ष, लोय कहिये लोक, पाव कहिये पाप, गद कहिये रोग, पश्चो कहिये पश्च, दुठरार पशु कहिये दुष्ट नर- पशु, यम कहिये काल, शिन्दो कहिये निन्दा, रातीयदहमय रहयसुद्धादा कहिये - इन तेरह भय करि रहित शुद्धात्मा होय है । भावार्थ- शुद्धात्मा कौं चोर का भय नाहीं । सो चोर के अनेक भेद हैं। एक धर्मचोर एक कर्म चोर, सो ही कहिये हैं जो धर्म स्थान जो देहरे ( देवालय ), तिन देहरेन की वस्तु चोरना, भगवान के छत्र, चमर, प्रतिबिम्ब, सिंहासन, भामण्डल, थारी, रकेवी, मारी, झालर, मजीरा, घण्टा, जाजम, चाँदनी, परदादि उपकरण वस्तुनको चौरे, सो धर्म- चीर कहिये तथा शास्त्र-चोर, सो शास्त्रजी के बन्धन, पूठा का चोरना, सो धर्म-चोर है तथा कपटाई करि छल तैं धर्म सेवन करें, सो धर्म-चोर है। धर्म स्थान हैं कोऊ गृहस्थ को वस्तु चोरना, सो धर्म-चोर है तथा कषाय के वशीभूत प्रमादी होय धर्म-वासना रहित अपना हिरदे करके, पोछे रुचि रहित किंचित् कोई धर्म अङ्ग का साधन लोक के देखनेकों करें है। सो धर्म-चोर है तथा धर्म की सेवा करि धर्म का सेवक बाजि ( कहलाकर ) पुजाया लोकमान्य भया । पीछे कोई पाप-कर्म के योग धर्म रहित होय उल्टा धर्म का द्वेषी होय । सो धर्म- चोर है । एतो धर्म-चोर के भेद कहे और कर्म चीर हैं सो इनके भी अनेक भेद हैं। मुख्य ये हैं - एक तन-चोर, एक धन-चोर और
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