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वचन चोर तहाँ जे कोई पराए बेटा-बेटी, पर-स्त्री की चोरी कर, पर-स्थान में जाय बेवना तथा हस्त], घोटक, गाय, महिषादिक पशून की चोरी का करना सो तो तन-चोर कहिये और पराये घर विषै ओड़ा ( फोड़कर ) चुराना मन्दिरन पै छल-बल करि चढ़ि चोरना। पराये घरे धनको आप जानि ले आवना, सो ए सर्व भेद धन-चोर के हैं। पराया दिया-धरामाल राखि लेना। जानता हो भोले राखना। इन आदिक अपने छल करि पराया धन चोरै, सो धन-चोर कहिये और पर के छिपे गुप्त वचन होय, ताकी कोई रहसि जानि, ताक प्रगट करना, सो वचन चोर है तथा मुखतें असत्य का बोलना, सो वचन चोर है । इत्यादिक ए कर्म चोर हैं। ऐसे जे धर्म-चोर और कर्म चोर, सो कर्म चोरतें अनन्तगुणा पाप धर्म-चोर का है। ऐसे कहे जो अनेक भेद चोर सो ऐसे चोरन का भय, संसारी परिग्रहोन है और अनन्त गुणों का धारी, अतीन्द्रिय सुख धन के धारी परमात्माकूं, चोर का भय नहीं। २ । और थोरी दीर्घ मेघ को वर्षा का भय तथा नदो, सरोवर, समुद्र, कूप वापी आदि जल का भय, संसारिक तन धारी जीवन होय है और शुद्धात्मा श्रमूर्तिक अनन्त सुख के धनीको, जल का नय भी नहीं। २ और राज भय सो राज का भय चोरनकूं, पर स्त्री लम्पटन कूं होय और अन्याय मार्गोनकू, असत्य वचनीकूं इन आदिक पाखण्डीनकूं राज का भय होय है और निर्जरण, कर्म रहित, परमेश्वर, शुद्धात्माकूं, राज भय नाहीं । ३ । और अग्नि का भय है सो काठ, वस्त्र, तृण, सुवर्ण, चाँदी, रतनादि मनुष्य पशुन के पौद्गलिक शरीर इन आदिक धन-धान्यादिक सर्व वस्तु पुद्गल स्कन्ध है । तिनकूं अग्नि का भय है तथा इन पुद्गल स्कन्धन में जिस जीव का ममत्व भाव होय, तिस रागी कूं अग्नि का भय है और अमूर्तिक, ज्ञानपिशड, शुद्धात्माको अग्नि का भय नाहीं । ४ । और अन्न ही है सहकारी जाका, ऐसा जो पुद्गल शरीर का धारी, परिग्रही, बहु कुटुम्बा, मोही, संसारी जीव, दुर्भिक्ष होते कुटुम्ब रक्षा तथा अपने तन की रक्षा करनहारा, ताकूं काल का भय होय है। क्यों ? यह मोही परिग्रही तन धारो, सो याक दुर्भिक्ष का भय होय है और पुद्गल शरीर रहित और कुटुम्बादि जन रहित, वीतराग, मोह रहित, शुद्धात्माक दुर्भिक्ष का भय नाहीं । ५। और लौकिक का भय है। सो जे तस्कर होय, द्यूत के रमणहारे होंय, पल (मांस ) भट्टी होय, मदिरा पायी होय, वैश्या घर गमनी होय, पर- जीवन
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