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अर्थ-जैसे नलनी का सूवा ( तोता), कपि को मूठी, कांच के महलमैं दूसरा स्वान नाहों। तैसे ही आत्मा भ्रम भला, राग-द्वेष ते आप ही बन्ध्या है। भावार्थ-नलनो का सूवा (तोता), नलनी पै बठिकें आपही उलट्या है। सो पञ्जन त नलनोको दृढ़ि पकड़े है। सो ऊर्ध्व पांव, अधोकं शरीर होय मूलै। काहू नैं पकरचा नाहीं बानध्या नाहीं। आपही रोसा समझे है जो मैं इस नलनोकौं तजौंगा, तौ मेरे लगेगी तथा उसे भ्रम भया, जो मोकौं काहू नै पकड़ि उल्टा बांधि दिया है। ऐसे भ्रमत आप महादुखो भया बन्ध्या। भ्रम जाय, तौ काहू नै पकरचा नाहीं, सहज ही नलनी तजै नभ में उड़ जाय और सुखी होय। तैसे आप अपनी भूलतें पर-वस्तु मैं राग-द्वेष करि, कौऊको भला मान है, काहूको बुरा मान है, ए मेरी है. र मेरी नाहीं। ऐसे भ्रम करि आपही बन्ध्या है। भ्रम गये, सहज ही सुखी होय है और सुनो, जैसे—बन्दरकौं एकरनेवाले ने एक तुच्छ मुख का कलश वन में धरचा, ताके भीतर चने धरे। सो छोटे मुख के कलश मैं तें चने लेनेकौ बन्दर ने लोभ के मारे दोऊ हाथ डारे। सो दोऊ मठि भर काढ़े था। दोऊ मुद्री छोटे मुख से निकसती नाहीं। तब बन्दर ने जानी, जो हाथ काह नै पकर हैं। ऐसे भ्रम होतें आप वन मैं उस घट मैं सागर पड़ा है। भापको बनाने । सो यौकाह ने पकड़या नहीं, यही भ्रम बुद्धि के प्रसादत चने का लोभी होय, आपही बंधि रह्या है। आप कदाचित मुट्ठी-चने का ममत्व तजिकै, चने नाखे । तौ सहज ही स्वच्छन्द होय, वन में विहार करे, सुखी होय। तैसे ही आत्मा, पर-द्रव्यन ते राग-द्वेष भाव करि, मोह के वशि, विषयभोग रूपी चने के लोमतें, संसार-वन में पड़ा, कर्म-बन्ध का करता होय, महादुख पावै है। विषयभोगरूपी चने से ममत्व भाव तजे, तौ सहण ही सुख-सन्तोष के प्रसाद तें सुखी होय और जैसे—कांच के महल-मन्दिर मैं श्वान जाय पड़ा, सो चारों तरफ श्वान हो श्वान देखि ऐसा भ्रम करता भया। जोय बहुत श्वान मेरे मारवेकौ आए हैं। ऐसा जानि आप उन तें युद्ध करने कू गया। सो यह जैसे बोले तैसे ही कांच के श्वान बोलें। ए युद्ध कर, तैसे ही कांच के श्वान युद्ध करें। सो ए इवान महाभयवन्त भया। जो मैं तौ एकला, अरु यही श्वान बहुत हैं सो मोहि मारंगे। ऐसे भ्रमतें बड़ा दुखी है। सो कांच के मन्दिर मैं कोई दूसरा श्वान नाहीं। एही श्वान अपना प्रतिबिम्ब कांच मैं देखि. भ्रमतें दुःखी होय है। तैसे ही ये आत्मा भी भ्रम-भाव करि, पर-वस्तुकौं देखि राग-द्वेष भाव करि, कर्म-बन्ध का करता होय, दुख उपजावे
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