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जोवन का सम्बन्ध आदिपाकाशे निमित होयतमा कदा पाप माप-कर्म, बड़ी स्थिति लिये उपजे। ताकरि भव-भव मैं दुखी होय। कहीं उपादान तौ आत्मा का शुम है। अरु निमित्त अशुभ होय, तो पाप-बन्ध
नहीं होय । शुभ उपादान तैं पुण्य का ही बन्ध होय है। जैसे--कोई मुनि तथा श्रावक महाधर्मात्मा, धर्म-ध्यान ।। सहित वनादिक स्थानकन मैं तिष्ठे। तहां आय, कोई पायी उपसर्ग करें। पाण्डवन की तथा वारिषेशजी की नार्ड || निमित्त खोटा होय तथा सेठ सुदर्शन की नाई निमित्त खोटा होय। तौ फल भला ही उपजे है और जहां उपादान | | तो चोटा, अशुभ, दगाबाजी रूप होय, क्रोध-मानादिक कषाय रूप होय ! अरु निमित भला होय। पूजा, दान, शास्त्र सुनना-पढ़ना, तप, संयमादिक अनेक मले निमित्त होंय, तो भी उपादान अशुभ के योग ते पाप-बन्ध ही होय है। जैसे----कोई चोर पराया धन हरने कूधर्मात्मा का स्वांग बनाय अनेक धर्म सेवन पूजा-पाठ, तपादिक करै है। परन्तु अशुभ उपादान के योग तैं पापही का बन्ध करै है। तेसे ही इस जीव के अनेक भावन की प्रवृत्ति होय है। जैसे—कहीं तो जैसा निमित्त, तैसा ही उपादान भाव होय है। तहां तो उत्कृष्ट शुभ-अशुभ का बन्ध और कहीं निमित्त तौ और ही और उपादान और ही, तहां फल उपादान प्रमाण होय है। तातै विवेकी हैं। तिनकों पर-भव सुख के निमित्त तौ भले निमित्त मिलावने । उपादान सदैव मला ही राखना योग्य है। भले निमित्त ते शुभ उपादानवाले जीवन के बड़ा शुभ फल उपजै है और भले निमित्त तै परम्पराय उयादान भी शुभ हो जाय है और खोटे निमित्त ते उपादान भी खोटा ही होय है। सो जगत् मैं प्रसिद्ध देखिये है। भले कुल के जीव खोटे निमित्तन तैं चोर, जुआरी, कुजाचारादि कुलक्षण सहित खोटे होते देखिये है और हीन कुल के उपजी जीव भली संगति ते ऊंचे होय सुखी देखिये है। तातें विवेकी जीवक निमित्त भले राखने का उपाय सदैव राखना योग्य है। निमित्त तें उपादान की शुद्धता होय है। जैसे-अग्नि के निमित्त सुवर्ण के उपादान की शुद्धता होय है। ताम्बा आदि कुधातन के निमित्त तें, सुवर्ण के उपादान की मलिनता होय है। ऐसे जानि, निमित्त भला ही मिलावना योग्य है। जहां-तहां निमित्त की मुख्यता है । सोही दिखाईये है। देखो आदिनाथ स्वामी, उत्कृष्ट भलै उपादान के धारक, तिनके अशुभ निमित्त तें. तियासी लास्स पूर्व, कषायन मैं जाते भए। दीक्षा रूप भाव नहीं भये। तब इन्द्र महाराज ने अवधि ते विचारी, जो तीर्थकर भगवान का सर्व प्रायु-कर्म पंचेन्द्रिय भोगन में व्यतीत भया!