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नदी तथा जब मैं
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कुटिलता राहत सरल मन, सरल वचन और सरल काय करि किये जो कार्य नाना प्रकार विकल्प तीन काल सम्बन्धी तिनकूं जाने। सो ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान है। इति ऋजुमति मनःपर्यय। आगे विपुलमति मनः पर्यय का संक्षेप कहिये है। तहां सैनी के मन सरल, वचन सरल, काय सरल किये जो विकल्प तिन सबकौं जाने और मन कुटिल, वचन कुटिल अरु काय कुटिलता करि किये जो विकल्प रूप कार्य, तिन सबकूं जानें, सो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान हैं । इति विपुलमति । तहाँ ऋजुमति तौ प्रतिपत्ति है, सो होय भो अरु जाता भी रहे। भये पोछेते जाता रहै, सो प्रतिपत्ति कहिये । भावार्थ - जिस यतीश्वरकै ऋजुमति ज्ञान होय । अरु वह मुनीश्वर पर्याय छोड़ि देवलोक में असंमयी उपजै तौ यह ज्ञान पर पर्याय में नाहीं जाय। उस मुनि को पर्याय ही मैं रह्या । देव भये जाता रहे नाहीं । तातें ऋजुमति प्रतिपत्ति है ओर जा यतीश्वरकै विजुलमति ज्ञान होय, सो जाता नाहीं । इस ज्ञान सहित केवलज्ञान होय, सो ता केवलज्ञान में मिलि जाय है । तातें यह विपुलमति ज्ञान विशुद्ध है। चरमशरीरिन कैं होय। ए ज्ञान भये संसार म नहीं हो है । ऐसा जादा यहाँ मनपा का विषय काल अपेक्षा उत्कृष्ट असंख्यात काल समय की जानें और क्षेत्र अपेक्षा पैंतालीस लाख योजन अढ़ाई द्वीप क्षेत्र की जानें विशेष एता जी मनुष्य लोक तौ गोल है । अरु मनः पर्यय ज्ञान का विषय चौकोर है। तातें मनुष्य लोकवारे व्या कोण्या मैं तिष्ठते देव तथा तिर्यंच तिनके मन विकल्प को भी जानें। ऐसे उत्कृष्ट मनःपर्यय-ज्ञान का विषय का । इति मन:पर्यय - ज्ञान का संक्षेप वर्णान। आगे केवलज्ञान संक्षेप वर्णन
गाथा - तिक्काले तिथलोये, खट दत्वं जहा य पण्णत्ती । जाशय केवलणाणय, जुगपदेककालम्हि विण खेदो || ४८ ॥
अर्थ — तीनकाल और तीन लोक बिषै द्रव्य जैसे-जैसे परिणमैं, तिनको केवलज्ञानी निरखेद रोके काल सबकूं युगपत् जानें है । भावार्थ - सर्व ज्ञानावरण कर्म के क्षयसे उत्पन्न भया जो केवलज्ञान, सो क्षायिक ज्ञान है । सो याके होतें अनन्त अलोकाकाश ताके मध्यभाग तिष्ठता असंख्यात प्रदेशरूप लोककाश ता विषै तीन
लोक रचना षट् द्रव्य करि बनी है। ता विषै त्रस नाड़ी है। ता विषै देवादि च्यारि गति अनन्तकाल की ध्रुव बनी हैं। तिन मैं संसारी जीव, अथिर पर्याय धारी उपजे हैं और यह लोक, षट् द्रव्यन करि भरया है। सौ रा षट् द्रव्य जैसे-जैसे परिणमै, तिन सर्वकं केवलज्ञानी जानें हैं। सो कहिये है। जीव द्रव्य अनन्त हैं । सो अनन्ते
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