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होय । बहुत अग्नि जलावनी-बुझावनी होय, बहुत जल मथन करना होय, नाखना होय, गाले अनगाले का बिचार रहित होय। जहां मठ, चोरी, दोर्घ माया करना इत्यादिक खोटो वृत्ति का वाणिज्य होय, सो हेय है और बहुत जीवन की उत्पत्ति-मृत्यु का आरम जो कि सन्ज मैं होय, सो अशुभ-हेय है। जहां बहुत अन्न का संग्रह भएडसाल करि बहुत दिन राखना तथा सन, चाम, केश, हाड़ादि इन विर्षे जीवन की उत्पत्ति बहुत होय है । तहां सर्दी का निमित्त पाय हिंसा बधै निर्दयो-भाव होय । ताते हेय है और शहद, विष, फासो | का रस्सा, छुरी-कटारादि, शस्त्र, कुसी, कुदाली, फावड़ा इत्यादिक वाणिज्य हिंसा के कारण हैं। तातें अशुभ हैं। जहां लोहा. ताम्बा, जस्ता, सोना, चाँदी, हीरादिक की खानि खुदावना तथा धरती खोदनासुदावना के किसब, सो अशुभ हैं। खेती जोतना-जुतावना, सो हिंसा सहित तजने योग्य हैं। साजी, फिटकरी, नील, बाल, फूल. कन्द, मूल इत्यादिक र हिंसा के कारण हैं। तातें अयोग्य हैं और भी इनकों
आदि जे पापकारी वाणिज्य होय, सो हेय हैं। जे धर्मात्मा जीव हैं, सो दया के निमित्त ये वाणिज्य नहीं करै है । अपना धर्म निर्दोष राखनेकों सर्व दोष तजें हैं । एते किसब वारन ते वाणिज्य नहीं करै तब दयाधर्म निर्दोष है, सो ही कहिए। तहां चाण्डाल कसाई चमार राह के मारनहारे भोलादिक चोर इनकों कर्ज नहीं देय । अरु देय तौ इनके स्पर्श तें तथा इनके विश्वास से अल्पकाल मैं क्षय होय । तन धनादि विनाश पावै। पर-भवकों पाप-बन्ध होय । तातें इनका वाणिज्य हेय है और धोबी, लुहार, छोपी, कुम्हार, तीर, तुपकादि ( बन्दूक) शस्त्रन के करनहारे इत्यादिक हिंसा के अनुमोदनहारे हैं, सो इनका वाणिज्य हेय कहा है। ऐसे कहे जे किसब तिन सबकं सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा दया-धम पालक जिनाज्ञा प्रतिपालक करुणानिधान उज्ज्वल-धर्म का दास इन किसबन मैं चौगुण होते होंहि तो भी नहीं करें। आप धर्मात्मा पर-भव सुख का लोभी इन लोक निन्दाकों बचाय यश का इन्छुक लोम के वशीभूत होय के कुवाणिज्यन का विश्वास जपने घर मैं नहीं आवने देय है। ऐसा वाणिज्य भेद श्रुत-ज्ञान से जान्या। ताते श्रुत-ज्ञान उपादेय है। इति कु-याखिज्य । ऐसे वाणिज्य में ज्ञेय-हेश-उपादेय कही। आगे इसही श्रुत-ज्ञान का जघन्य मध्यम उत्कृष्ट करि तीन प्रकार स्वरूप कहिये है। तहां सर्व ज्ञान तें छोटा सो तो जघन्य जानना और सर्व द्वादशांग प्रकीर्णादि श्रुत-ज्ञान सी
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